झांसी के एक वरिष्ठ अधिवक्ता को अपनी बेटी और भतीजी के साथ यौन उत्पीड़न के आरोपों में इलाहाबाद हाईकोर्ट से जमानत मिल गई है। न्यायमूर्ति कृष्ण पहल की एकलपीठ ने आपराधिक जमानत याचिका संख्या 17325/2025 को स्वीकार करते हुए यह कहते हुए राहत दी कि पीड़िताओं के बयानों में बार-बार बदलाव, प्राथमिकी दर्ज करने में एक वर्ष की देरी और किसी प्रकार का फोरेंसिक साक्ष्य न होना अभियोजन की कहानी को कमजोर बनाता है।
मामले की पृष्ठभूमि
6 दिसंबर 2024 को दो युवतियों — जिनमें एक याचिकाकर्ता की भतीजी (V1) और दूसरी उसकी पुत्री (V2) हैं — द्वारा प्राथमिकी दर्ज कराई गई। उन्होंने आरोप लगाया कि उनके साथ झांसी स्थित आवास पर याचिकाकर्ता ने कई बार यौन शोषण किया। आरोप भारतीय दंड संहिता की धारा 376, 354 और 506 के तहत लगाए गए।
V1 ने आरोप लगाया कि याचिकाकर्ता ने उसे घर से निकालने की धमकी देकर दो बार बलात्कार किया। V2 ने आरोप लगाया कि जब वह सो रही थी, तब याचिकाकर्ता ने अश्लील हरकतें कीं। दोनों ने यह भी आरोप लगाया कि याचिकाकर्ता ने उनके माध्यम से दूसरों के खिलाफ झूठी एफआईआर दर्ज करवाकर उनसे धन उगाही की।
याचिकाकर्ता की दलीलें
याचिकाकर्ता की ओर से प्रस्तुत वकीलों ने निम्नलिखित आधारों पर जमानत की मांग की:
- प्राथमिकी में लगभग एक वर्ष की देरी, जिसकी कोई संतोषजनक वजह नहीं दी गई।
- पीड़िताओं के बयानों में विरोधाभास और बार-बार बदलाव।
- चिकित्सकीय परीक्षण या फोरेंसिक रिपोर्ट के अभाव में आरोप अप्रमाणित।
- पहले भी पीड़िताओं द्वारा न्यायालय में बयान बदले जाने के प्रमाण।
- याचिकाकर्ता ने V1 की माता-पिता की मृत्यु के बाद उसके अभिभावक की भूमिका निभाई।
- पहले दर्ज एफआईआर भी अन्य व्यक्तियों के दखल और धमकी के कारण की गईं थीं।
याचिकाकर्ता ने पीड़िताओं के ऐसे बयान भी प्रस्तुत किए जिनमें उन्होंने बाद में आरोपों का खंडन किया था।
राज्य की दलीलें
सरकारी पक्ष और सूचनाकर्ता के वकीलों ने जमानत का विरोध करते हुए कहा:
- आरोप के समय दोनों पीड़िताएं नाबालिग थीं।
- याचिकाकर्ता एक प्रभावशाली व्यक्ति है जिसने अपने प्रभाव का दुरुपयोग किया।
- आरोप अत्यंत गंभीर मानसिक विकृति को दर्शाते हैं।
- याचिकाकर्ता के विरुद्ध पूर्व में भी दो आपराधिक मामले लंबित रहे हैं।
न्यायालय का विश्लेषण
न्यायमूर्ति कृष्ण पहल ने निर्णय में प्रमुख बिंदुओं पर विचार किया:
- आपराधिक इतिहास: प्रभाकर तिवारी बनाम राज्य (2020) 11 SCC 648 का हवाला देते हुए कहा गया कि केवल मामलों का लंबित होना जमानत न देने का आधार नहीं बन सकता।
- पीड़िताओं की आयु: दोनों की जन्मतिथि के अनुसार वे आरोपों के समय बालिग होने की कगार पर थीं।
- बयानों में विरोधाभास: पीड़िताओं के बयान बार-बार बदले गए जिससे उनकी विश्वसनीयता पर संदेह उत्पन्न होता है।
- एफआईआर में देरी: करीब एक वर्ष की देरी ने आरोपों की प्रामाणिकता पर प्रश्नचिह्न लगाया।
- साक्ष्यों की अनुपस्थिति: मेडिकल या फोरेंसिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं थे।
- पारिवारिक टकराव: पीड़िताओं द्वारा अपनी मर्जी से विवाह करना और याचिकाकर्ता की नाराज़गी इस विवाद की पृष्ठभूमि में आया।
न्यायालय ने कहा, “आरोपी को ‘पीडोफाइल’ करार देना इस स्तर पर जल्दबाज़ी और कानूनी रूप से अनुचित है,” और यह जोड़ा कि अभिभावक के रूप में नियंत्रण की सीमाएं पार की गई हों, यह केवल साक्ष्य के परीक्षण के बाद तय होगा।
निष्कर्ष और आदेश
न्यायालय ने याचिकाकर्ता को जमानत देते हुए कहा कि उसे निजी मुचलका एवं दो जमानती प्रस्तुत करने होंगे। साथ ही यह निर्देश दिया गया:
- वह साक्ष्यों से छेड़छाड़ नहीं करेगा।
- गवाहों को डराएगा या दबाव नहीं डालेगा।
- नियत तारीख को ट्रायल कोर्ट में उपस्थित रहेगा।
न्यायालय ने दोहराया कि यह आदेश ट्रायल कोर्ट को स्वतंत्र निर्णय लेने से नहीं रोकेगा।
मामला: आपराधिक जमानत याचिका संख्या 17325 / 2025