सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि यदि ताश का खेल केवल मनोरंजन और मनोरंजक गतिविधि के रूप में खेला जाए और उसमें सट्टा या जुए का कोई तत्व न हो, तो वह “नैतिक अधमता (मोरल टरपिट्यूड)” की श्रेणी में नहीं आता। न्यायालय ने यह टिप्पणी कर्नाटक की एक सहकारी समिति के निदेशक पद के लिए चुने गए हनुमंथरायप्पा वायसी के चुनाव को बहाल करते हुए की, जिसे पहले कथित जुए के आरोप में रद्द कर दिया गया था।
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले और सहकारिता अधिनियम के तहत संबंधित अधिकारियों द्वारा पारित आदेशों को रद्द करते हुए कहा कि इस मामले में नैतिक अधमता की कोई स्पष्टता नहीं है।
“हम पाते हैं कि जिस आचरण को लेकर अपीलकर्ता पर आरोप लगाया गया है, वह नैतिक अधमता की श्रेणी में नहीं आता। हर ऐसा कृत्य जिससे भौंहें तन जाएं, वह नैतिक अधमता नहीं कहलाता,” पीठ ने 14 मई को पारित आदेश में कहा।

मामले के अनुसार, हनुमंथरायप्पा को 12 फरवरी 2020 को आयोजित चुनाव में सर्वाधिक मतों से सहकारी समिति के निदेशक मंडल में चुना गया था। परंतु चुनाव हारने वाले उम्मीदवार श्री रंगनाथ बी ने यह दावा किया कि हनुमंथरायप्पा को कर्नाटक पुलिस अधिनियम, 1963 की धारा 87 के तहत जुआ खेलने के लिए दोषी ठहराया गया था और इस आधार पर उनकी उम्मीदवारी अमान्य कर दी गई थी।
विवाद तब शुरू हुआ जब कुछ लोगों के साथ सड़क किनारे ताश खेलते हुए पकड़े जाने पर हनुमंथरायप्पा पर ₹200 का जुर्माना लगाया गया — वह भी बिना किसी मुकदमे के। उच्च न्यायालय ने इसे नैतिक अधमता मानते हुए उनका चुनाव रद्द कर दिया था।
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “देश के अधिकांश हिस्सों में बिना जुए के ताश खेलना गरीब आदमी के लिए एक स्वीकृत मनोरंजन का साधन है। हर ताश खेलने को नैतिक अधमता नहीं माना जा सकता।”
न्यायालय ने यह भी माना कि बिना किसी गंभीर आरोप के केवल ताश खेलने के आधार पर उनका चुनाव रद्द कर देना अत्यंत “अनुपातहीन सजा” है।
अंततः, सुप्रीम कोर्ट ने हनुमंथरायप्पा के चुनाव को बहाल करते हुए कहा कि वे अपने कार्यकाल की शेष अवधि तक निदेशक के पद पर बने रहेंगे। यह निर्णय भविष्य में ऐसे मामलों में नैतिक अधमता की व्याख्या को लेकर महत्वपूर्ण मार्गदर्शन प्रदान करता है।