पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, जस्टिस शील नागू ने एक अभूतपूर्व और विवादास्पद निर्णय में एक महत्वपूर्ण मामला एक मौजूदा जज से वापस लेकर स्वयं की अध्यक्षता वाली पीठ को सौंप दिया है। यह निर्णय उस मामले की सुनवाई पूरी होने और फैसला सुरक्षित रखे जाने के कुछ ही दिनों बाद लिया गया, जिसकी वैधता और न्यायिक परंपराओं पर अब सवाल उठने लगे हैं।
यह मामला हरियाणा एंटी करप्शन ब्यूरो द्वारा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत दर्ज एक एफआईआर को रद्द करने के लिए याचिकाकर्ता रूप बंसल द्वारा दायर याचिका से संबंधित है। इस याचिका की सुनवाई जज महबीर सिंह सिंधु द्वारा की गई थी और 2 मई को फैसला सुरक्षित रख लिया गया था। लेकिन 10 मई को मुख्य न्यायाधीश नागू ने एक प्रशासनिक आदेश जारी कर यह मामला जज सिंधु से वापस ले लिया और इसे पुनः सुनवाई के लिए स्वयं की अध्यक्षता वाली एक नई पीठ के समक्ष 12 मई को सूचीबद्ध कर दिया।
वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी, जो याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए, ने इस कदम का कड़ा विरोध किया। उन्होंने तर्क दिया कि जब कोई मामला सुन लिया गया हो और उस पर फैसला सुरक्षित रखा गया हो, तो उसे वापस लेना और पुनः सौंपना न्यायिक प्रक्रिया की पवित्रता का उल्लंघन है। रोहतगी ने कहा, “यह निर्णय न्यायिक स्वायत्तता और स्थापित परंपराओं के लिए एक खतरा पैदा करता है।”

कोर्ट के आदेश में कहा गया है कि मुख्य न्यायाधीश के पास “रजिस्ट्रियों का स्वामी” होने के नाते व्यापक अधिकार हैं, जो “न्यायिक जांच से परे” हैं। यह आदेश 8 और 9 मई को प्राप्त “मौखिक और लिखित शिकायतों” के आधार पर लिया गया, जिससे निर्णय के लिए सीमित समय रह गया था।
आदेश में उल्लेख किया गया, “परिस्थितियों की गंभीरता को देखते हुए, मुख्य न्यायाधीश ने यह ‘कठोर कदम’ उठाया ताकि विवाद को समाप्त किया जा सके और संस्था तथा संबंधित जज को और अधिक अपमान से बचाया जा सके।” आदेश में यह भी कहा गया कि यदि तत्काल कार्रवाई न की जाती, तो यह कर्तव्य की उपेक्षा और सार्वजनिक विश्वास के साथ धोखा होता।
हालांकि शिकायतों की प्रकृति सार्वजनिक नहीं की गई है, लेकिन आदेश में यह स्पष्ट किया गया है कि मुख्य न्यायाधीश का हस्तक्षेप निवारक और सुरक्षात्मक उद्देश्य से किया गया है। साथ ही यह भी कहा गया है कि ऐसा कोई स्पष्ट या अप्रत्यक्ष कानूनी प्रतिबंध नहीं है जो सुने गए और सुरक्षित रखे गए मामलों को वापस लेने से रोकता हो।
इस घटनाक्रम ने न्यायिक स्वतंत्रता और सुरक्षित निर्णयों की प्रक्रिया को लेकर गंभीर बहस छेड़ दी है। कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह की प्रशासनिक कार्रवाई अगर सामान्य हो जाए, तो इससे न्यायपालिका के भीतर असंतुलन और हस्तक्षेप की आशंका बढ़ सकती है।
हाईकोर्ट ने हालांकि स्पष्ट किया है कि यह कदम केवल संस्था और जस्टिस सिंधु की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए उठाया गया है। अब इस मामले की सुनवाई और निर्णय मुख्य न्यायाधीश नागू द्वारा की जाएगी।