रेस जुडिकाटा का सिद्धांत न केवल दो अलग-अलग कार्यवाहियों पर, बल्कि एक ही कार्यवाही के विभिन्न चरणों पर भी लागू होता है: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक हालिया निर्णय में यह दोहराया है कि रेस जुडिकाटा (res judicata) का सिद्धांत केवल दो अलग-अलग मुकदमों पर ही नहीं, बल्कि एक ही मुकदमे की विभिन्न चरणों पर भी समान रूप से लागू होता है। यह टिप्पणी सिविल अपील संख्या 7108/2025 (सुल्तान सईद इब्राहिम बनाम प्रकाशन व अन्य) के निर्णय में की गई, जिसमें न्यायालय ने विशेष निष्पादन (specific performance) से संबंधित डिक्री के निष्पादन के दौरान याचिकाकर्ता को पक्षकार सूची से हटाने की मांग को खारिज कर दिया।

यह निर्णय न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की खंडपीठ द्वारा पारित किया गया।

पृष्ठभूमि

यह मामला एक विक्रय अनुबंध (दिनांक 14 जून 1996) के आधार पर दायर विशेष निष्पादन वाद (O.S. No. 617/1996) से उत्पन्न हुआ, जो कि प्रतिवादी संख्या 1 (मूल वादी) द्वारा प्रिंसिपल सब कोर्ट, पलक्कड़, के समक्ष दर्ज किया गया था। वादी ने यह मुकदमा दिवंगत जमीला बीवी (मूल प्रतिवादी) के विरुद्ध दायर किया, जिनसे उन्होंने 1 सेंट की संपत्ति (एक दुकान सहित) खरीदने का अनुबंध किया था। सुल्तान सईद इब्राहिम (अपीलकर्ता) इस अनुबंध के एक गवाह थे।

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निष्पादन प्रक्रिया के दौरान जमीला बीवी के निधन के बाद, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की आदेश XXII नियम 4 के तहत उनके कानूनी उत्तराधिकारियों को पक्षकार बनाया गया, जिनमें अपीलकर्ता भी शामिल थे।

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प्रक्रिया का इतिहास

बहुपर्यायी कानूनी प्रक्रिया, जिसमें एकतरफा डिक्री की बहाली, मूल वाद की सुनवाई, अपील, और विशेष अनुमति याचिका शामिल थी, के बाद 2008 में डिक्री को अंतिमता प्राप्त हुई। इसके बावजूद निष्पादन प्रक्रिया लटकी रही। वर्ष 2012 में, अपीलकर्ता ने I.A. No. 2348/2012 दाखिल कर यह दावा किया कि वे न तो मोहम्मडन लॉ के अंतर्गत कानूनी उत्तराधिकारी हैं और न ही उन्हें पक्षकार बनाया जाना चाहिए था। उन्होंने यह भी दावा किया कि संपत्ति पर उनका किरायेदारी अधिकार है जो उन्होंने अपने पिता से विरासत में प्राप्त किया है।

प्रथम दृष्टि में, ट्रायल कोर्ट ने इस याचिका को निर्मित रेस जुडिकाटा (constructive res judicata) के अंतर्गत बाधित मानते हुए खारिज कर दिया। केरल उच्च न्यायालय ने O.P.(C) No. 2290/2013 में अपीलकर्ता की याचिका को अस्वीकार करते हुए माना कि याचिकाकर्ता की इम्प्लीडमेंट पहले ही अंतिम हो चुकी थी और आदेश I नियम 10 CPC के अंतर्गत दी गई याचिका रेस जुडिकाटा से बाधित थी।

सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण

सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों के निर्णय को सही ठहराते हुए कहा:

“एक सक्षम अधिकार क्षेत्र वाली अदालत द्वारा लिए गए निर्णय में केवल उसी स्थिति में हस्तक्षेप किया जा सकता है जब उसे अपीलीय प्राधिकारी द्वारा संशोधित या पलटा जाए। वर्तमान मामले में… आदेश I नियम 10 के तहत नाम हटाने की याचिका रेस जुडिकाटा से बाधित मानी जाएगी।”

न्यायालय ने भानु कुमार जैन बनाम अर्चना कुमार [(2005) 1 SCC 787], सत्यध्यान घोषाल बनाम देवराजिन देबी [1960] 3 SCR 590, और एस. रामचंद्र राव बनाम एस. नागभूषण राव [2022 SCC OnLine SC 1460] के संदर्भों का उल्लेख करते हुए दोहराया कि:

“रेस जुडिकाटा का सिद्धांत न केवल दो अलग-अलग कार्यवाहियों पर, बल्कि एक ही कार्यवाही के विभिन्न चरणों पर भी समान रूप से लागू होता है।”

न्यायालय ने मोहम्मडन लॉ के अंतर्गत representation doctrine की अनुपयुक्तता का अपीलकर्ता द्वारा उठाया गया दावा अस्वीकार कर दिया, यह स्पष्ट करते हुए कि इम्प्लीडमेंट के समय आपत्ति उठानी चाहिए थी।

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खंडपीठ ने आगे कहा कि अपीलकर्ता की देरी से की गई आपत्तियाँ और पहले की कार्यवाहियों में बिना विरोध के भागीदारी, निष्पादन को जानबूझकर विलंबित करने की रणनीति को दर्शाती है।

किरायेदारी का दावा

केरल भवन (पट्टा और किराया नियंत्रण) अधिनियम, 1965 के अंतर्गत किरायेदारी सुरक्षा के दावे पर, कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता अपनी किरायेदारी या विशेष कब्जा सिद्ध करने में विफल रहे। न्यायालय ने निम्न बिंदुओं को स्पष्ट किया:

  • अपीलकर्ता विक्रय अनुबंध के गवाह थे;
  • अनुबंध में कहीं भी किरायेदारी का उल्लेख नहीं है;
  • उन्होंने पहले कभी किरायेदारी का दावा नहीं किया;
  • उनके नाम पर लाइसेंस 2011 में प्राप्त हुआ, जबकि डिक्री पहले ही पारित हो चुकी थी।
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कब्जे के विषय में

कोर्ट ने रोहित कोचर बनाम विपुल इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपर्स लिमिटेड [2024 SCC OnLine SC 3584] का हवाला देते हुए स्पष्ट किया:

“चूंकि दोनों निचली अदालतें इस निष्कर्ष पर पहुंची हैं कि वाद के डिक्री होने के समय संपत्ति पर अनन्य कब्जा मूल प्रतिवादी के पास था, इसलिए विशेष निष्पादन की डिक्री में कब्जे का स्थानांतरण निहित रूप से सम्मिलित है।”

निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने अपील को खारिज करते हुए अपीलकर्ता पर ₹25,000/- की लागत लगाई, जिसे लीगल सर्विसेज अथॉरिटी में दो सप्ताह के भीतर जमा करने का निर्देश दिया गया। न्यायालय ने निष्पादन न्यायालय को यह सुनिश्चित करने का आदेश दिया कि डिक्री धारक (प्रतिवादी संख्या 1) को दो माह के भीतर, आवश्यकता पड़ने पर पुलिस सहायता के साथ, संपत्ति का शांतिपूर्ण कब्जा सौंपा जाए। यह भी उल्लेख किया गया कि विक्रय विलेख पहले ही निष्पादन के आधार पर संपन्न हो चुका है।

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