प्रशिक्षण अवधि के दौरान शैक्षिक व सेवाकाल संबंधी अनियमितताओं के आरोपों पर बर्खास्त की गई महिला सिविल जज को सुप्रीम कोर्ट ने किया बहाल

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने राजस्थान न्यायिक सेवा से पिंकी मीणा की बर्खास्तगी को खारिज करते हुए कहा कि यह आदेश प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है और इसमें कानूनी आधार का अभाव है। न्यायालय ने उन्हें सभी परिणामी लाभों के साथ तत्काल सेवा में बहाल करने का निर्देश दिया है, हालांकि उन्हें पूर्व वेतन (बैक वेजेस) नहीं मिलेगा।

यह मामला राजस्थान उच्च न्यायालय, जोधपुर द्वारा प्रशिक्षु सिविल जज पिंकी मीणा की बर्खास्तगी से उत्पन्न हुआ। सुप्रीम कोर्ट ने 29 मई 2020 का बर्खास्तगी आदेश और 17 फरवरी 2020 का कारण बताओ नोटिस खारिज कर दिया, यह कहते हुए कि यह प्रक्रिया त्रुटिपूर्ण थी और न्यायिक सेवा के दौरान किसी गंभीर दुराचार का प्रमाण नहीं था।

मामले की पृष्ठभूमि

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पिंकी मीणा, जिनके पास कला, शिक्षा, विधि (एल.एल.बी.) एवं विधि स्नातकोत्तर (एल.एल.एम.) की डिग्रियाँ हैं, ने 2014 में राजस्थान शिक्षा विभाग में ग्रेड-II शिक्षक के रूप में सेवा प्रारंभ की थी। 2017 की भर्ती अधिसूचना के जवाब में उन्होंने आवेदन किया और 2019 में सिविल जज के पद पर नियुक्त हुईं, जिसके पूर्व उन्होंने शिक्षण पद से इस्तीफा दे दिया था।

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बाद में शिकायतें दर्ज की गईं कि मीणा ने विश्वविद्यालय के नियमों के विरुद्ध एक साथ दो डिग्रियाँ (बी.एड. और एल.एल.बी.) प्राप्त कीं, सरकारी सेवा में रहते हुए एल.एल.एम. की पढ़ाई के लिए उचित अनुमति नहीं ली, और न्यायिक सेवा के लिए आवेदन करते समय पूर्व सरकारी सेवा की जानकारी छिपाई।

दोनों पक्षों की दलीलें

मीणा के वकील ने तर्क दिया कि:

  • कथित दुराचार शिक्षा विभाग में कार्यकाल से संबंधित था, न्यायिक सेवा से नहीं।
  • उन्होंने साक्षात्कार से पहले ही इस्तीफा दे दिया था और उस समय सरकारी कर्मचारी नहीं थीं।
  • उनकी प्रशिक्षण अवधि निर्विवाद रूप से पूर्ण हुई थी।
  • जाँच प्रक्रिया त्रुटिपूर्ण थी, उन्हें उचित प्रतिनिधित्व और जाँच प्रतिवेदन नहीं दिया गया।

उत्तरदाता (हाई कोर्ट) का कहना था कि मीणा ने राजस्थान विश्वविद्यालय की अधिसूचना 168-A और 168-B का उल्लंघन करते हुए एल.एल.बी. और बी.एड. साथ-साथ की, बिना अनुमति एल.एल.एम. की, और पूर्व सरकारी सेवा की जानकारी छिपाई, जो राजस्थान न्यायिक सेवा नियमावली, 2010 के नियम 44 से 46 और नियम 14 के तहत बर्खास्तगी योग्य है।

न्यायालय का विश्लेषण

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न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने माना कि:

  • दुराचार के आरोप न्यायिक सेवा में आने से पूर्व के हैं और प्रशिक्षण अवधि में बर्खास्तगी का औचित्य नहीं बनाते।
  • पूर्व सरकारी सेवा की जानकारी न देना कोई गंभीर त्रुटि नहीं थी, क्योंकि उस समय वह पद पर नहीं थीं।
  • जाँच प्रक्रिया प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करती है क्योंकि मीणा को प्रभावी भागीदारी का अवसर नहीं दिया गया।

कोर्ट ने कहा, “पूर्व सरकारी सेवा की जानकारी न देना, याचिकाकर्ता को सेवा से हटाने का आधार नहीं हो सकता,” और यह कि “एक छोटी त्रुटि (चूक) के लिए सबसे कठोर दंड (बर्खास्तगी) देना उचित नहीं।”

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न्यायालय ने न्यायपालिका में विविधता के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा, “अपीलकर्ता ने सामाजिक पूर्वग्रहों से लड़ते हुए शिक्षा अर्जित की है, जो न्याय व्यवस्था और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए लाभकारी है।”

अंतिम निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए कारण बताओ नोटिस और बर्खास्तगी आदेश को निरस्त कर दिया। मीणा को तत्काल सेवा में बहाल किया जाएगा और उन्हें वरिष्ठता व वेतन निर्धारण सहित सभी लाभ प्राप्त होंगे, हालांकि पिछला वेतन नहीं मिलेगा। साथ ही, उन्हें सफलतापूर्वक प्रशिक्षण पूर्ण करने वाली एवं स्थायी रूप से नियुक्त न्यायिक अधिकारी माना जाएगा।

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