सुप्रीम कोर्ट ने एक भूमि विवाद मामले में दिया गया अपना फैसला वापस ले लिया है, जब यह सामने आया कि यह निर्णय एक “घोस्ट” (फर्जी) प्रतिवादी के जरिए बनाई गई समझौता योजना के आधार पर प्राप्त किया गया था। जस्टिस पी. एस. नरसिम्हा और जस्टिस जॉयमाल्य बागची की पीठ ने सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री को मामले की आंतरिक जांच कर तीन सप्ताह में रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया है। कोर्ट ने यह भी चेतावनी दी है कि दोषियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की जा सकती है।
पीठ ने पहले 13 दिसंबर 2024 को मुजफ्फरपुर की निचली अदालत और पटना हाईकोर्ट के आदेशों को रद्द कर दिया था, जो बाद में फर्जी समझौते के आधार पर लिया गया पाया गया। यह कथित समझौता याचिकाकर्ता बिपिन बिहारी सिन्हा और एक फर्जी प्रतिवादी के बीच हुआ बताया गया था।
बाद में पता चला कि असली प्रतिवादी, बिहार के मुजफ्फरपुर निवासी हरीश जायसवाल को इन कार्यवाहियों की कोई जानकारी नहीं थी। जायसवाल को इस आदेश की जानकारी पांच महीने बाद तब मिली जब उनके दामाद ने सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर इसे देखा। अधिवक्ता ज्ञानंत सिंह के माध्यम से जायसवाल ने कोर्ट में धोखाधड़ी, छल और तथ्यों को दबाने का आरोप लगाते हुए अर्जी दाखिल की।
जायसवाल की अर्जी में कहा गया, “याचिकाकर्ता ने न केवल कानूनी और नैतिक मानकों का उल्लंघन किया, बल्कि इस न्यायालय के साथ धोखाधड़ी भी की है, जिसे यदि सुधारा नहीं गया तो ऐसे दुर्भावनापूर्ण मुकदमादारों को अपने फर्जी कृत्यों को जारी रखने का साहस मिलेगा।”
मामले में तब और संदेह उत्पन्न हुआ जब यह खुलासा हुआ कि चार अधिवक्ताओं ने फर्जी प्रतिवादी (फर्जी हरीश जायसवाल) की ओर से उपस्थिति दर्ज कराई थी। इनमें से एक, जो अब 80 वर्ष के हैं, ने अपने वकील के माध्यम से कहा कि वे लंबे समय से प्रैक्टिस नहीं कर रहे हैं और उन्होंने इस मामले में कभी उपस्थिति नहीं दी।
स्थिति और गंभीर तब हो गई जब यह सामने आया कि असली प्रतिवादी को मामले की जानकारी न मिले, इसके लिए जानबूझकर उनके नाम से कैविएट दायर कर दिया गया था।
जायसवाल के वकील ने दलील दी, “कोर्ट को इस तरह गुमराह नहीं किया जा सकता,” और बताया कि कैसे न्यायिक प्रक्रिया के दुरुपयोग के लिए गंभीर स्तर पर छेड़छाड़ की गई।
जायसवाल ने आरोप लगाया कि 13 दिसंबर 2024 का आदेश 2016 में पटना हाईकोर्ट द्वारा दिए गए उनके पक्ष में फैसले को फर्जी समझौते और अनधिकृत कानूनी प्रतिनिधित्व के आधार पर पलटने के लिए लाया गया। उन्होंने कहा कि उन्होंने न तो कभी याचिकाकर्ता के साथ कोई समझौता किया और न ही किसी वकील को अपनी ओर से पेश होने के लिए अधिकृत किया।
अर्जी में कहा गया, “पूरी कार्यवाही को इस प्रकार रची गई कि आवेदक को पूरी तरह से अज्ञानता में रखा जाए और उसे सुनवाई के अपने मौलिक अधिकार से वंचित कर दिया जाए।”
जायसवाल ने कहा कि याचिकाकर्ता ने अज्ञात व्यक्तियों के साथ मिलकर फर्जी समझौता दाखिल करने और उनकी सहमति के बिना वकीलों की नियुक्ति कर अदालत को यह विश्वास दिलाया कि मामला सौहार्दपूर्ण तरीके से सुलझ गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ऐसी धोखाधड़ी की प्रथाओं को बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और सच्चाई का पता लगाने के लिए पूरी जांच का आदेश दिया है।