सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ—जिसमें जस्टिस अभय एस. ओका, जस्टिस उज्ज्वल भुइयाँ और जस्टिस एस.वी.एन. भट्टी शामिल हैं—ने जितेन्द्र @ कल्ला बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली) [क्रिमिनल अपील संख्या 865/2025] में वरिष्ठ अधिवक्ता के नामांकन से संबंधित इंदिरा जयसिंह बनाम सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया (2017 और 2023) के फैसलों में निर्धारित प्रक्रिया की समीक्षा के लिए इस मुद्दे को बड़ी पीठ को सौंप दिया है।
पृष्ठभूमि:
यह मामला एक वरिष्ठ अधिवक्ता द्वारा न्यायालय के समक्ष विभिन्न मामलों में भौतिक तथ्यों की गलत प्रस्तुति से उत्पन्न हुआ, जिससे नामांकन प्रक्रिया की वैधानिकता, पारदर्शिता और निष्पक्षता पर गंभीर सवाल उठे। विशेष रूप से एडवोकेट्स एक्ट, 1961 की धारा 16(2) के तहत नामांकन प्रक्रिया में ईमानदारी की जांच और अंक प्रणाली की कार्यप्रणाली पर प्रश्न खड़े हुए।
पूर्व के निर्णयों में धारा 16 की वैधता को बरकरार रखते हुए एक स्थायी समिति, इंटरव्यू और 100 अंकों की अंक प्रणाली के साथ एक संरचित व्यवस्था निर्धारित की गई थी। परंतु समय के साथ उसमें जवाबदेही की कमी और दुरुपयोग सामने आने पर न्यायिक पुनर्विचार की आवश्यकता महसूस की गई।
मुख्य टिप्पणियाँ और न्यायालय द्वारा उठाए गए प्रश्न:
1. आवेदन प्रणाली बनाम वैधानिक योजना:
कोर्ट ने यह सवाल उठाया कि क्या वरिष्ठ अधिवक्ता नामांकन के लिए स्वयं आवेदन कर सकते हैं, जबकि धारा 16(2) में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यह न्यायालय द्वारा अधिवक्ता की सहमति से प्रदान किया जाए—not on application.
2. इंटरव्यू की उपयोगिता और गरिमा:
पीठ ने यह टिप्पणी की:
“जब हम ऐसे वरिष्ठ अधिवक्ता को इंटरव्यू के लिए बुलाते हैं, तो क्या हम उसकी गरिमा से समझौता नहीं कर रहे?”
3. ईमानदारी और चरित्र का कोई अंक नहीं:
कोर्ट ने यह मुद्दा उठाया कि वर्तमान प्रणाली में पेशेवर आचरण या ईमानदारी की कमी के लिए अंक कम करने की कोई व्यवस्था नहीं है, जो कि एक गंभीर कमी है।
4. केवल 20 वर्षों के पंजीकरण पर पूर्ण अंक:
कोर्ट ने पूछा कि क्या केवल 20 वर्षों के पंजीकरण मात्र पर पूर्ण अंक दिए जाने चाहिए, भले ही वह अधिवक्ता सक्रिय अभ्यास में न रहा हो?
5. न्यायाधीशों पर समय का अत्यधिक भार:
पीठ ने यह व्यावहारिक कठिनाई बताई कि उम्मीदवारों द्वारा प्रस्तुत निर्णयों और प्रकाशनों की समीक्षा करना न्यायाधीशों के लिए यथार्थ रूप से संभव नहीं है।
6. ट्रायल कोर्ट के अधिवक्ताओं के साथ भेदभाव:
फैसले में कहा गया:
“यह आवश्यक नहीं है कि वरिष्ठ अधिवक्ता का नामांकन केवल उच्च न्यायालय या सुप्रीम कोर्ट के वकीलों तक सीमित हो…जिला अदालतों के वकील भी योग्यता और अनुभव रखते हैं।”
7. सीक्रेट बैलट पर पुनर्विचार:
हालांकि इंदिरा जयसिंह निर्णयों में गुप्त मतदान पर रोक थी, कोर्ट ने इसे फिर से लागू करने की संभावना पर विचार किया जिससे न्यायाधीश स्वतंत्र रूप से अपने विचार व्यक्त कर सकें।
प्रस्तुतियाँ और प्रतिक्रियाएँ:
महान्यायवादी (AGI):
उन्होंने वर्तमान प्रणाली की खामियों को स्वीकार किया, आवेदन प्रक्रिया बनाए रखने का समर्थन किया, परंतु इंटरव्यू और भारी दस्तावेजी समीक्षा को अव्यावहारिक बताया।
सॉलिसिटर जनरल:
उन्होंने स्थायी समिति की आलोचना करते हुए अनिवार्य गुप्त मतदान और मौजूदा अंक प्रणाली में सुधार की वकालत की।
दिल्ली, कर्नाटक, पंजाब एवं हरियाणा तथा मध्य प्रदेश हाईकोर्ट:
इन न्यायालयों ने इंटरव्यू को समाप्त करने या कम करने, ईमानदारी को औपचारिक मूल्यांकन मानदंड में शामिल करने, और ट्रायल कोर्ट वकीलों का उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने जैसे सुझाव दिए।
सुश्री इंदिरा जयसिंह:
मूल याचिकाकर्ता के रूप में उन्होंने पुनर्विचार का विरोध किया, परंतु पैराग्राफ 74 (इंदिरा जयसिंह-1) के तहत फ्रेमवर्क में संशोधन का समर्थन किया। उन्होंने इंटरव्यू की जगह ‘इंटरएक्शन’, स्पष्ट ईमानदारी जांच और मेंटरिंग तथा विशिष्ट विशेषज्ञता को भी मूल्यांकन मानदंडों में शामिल करने का सुझाव दिया।
निष्कर्ष और निर्देश:
फैसले के पैरा 45 का उल्लेख करते हुए पीठ ने रजिस्ट्रार (न्यायिक) को निर्देश दिया कि इस निर्णय की प्रति भारत के मुख्य न्यायाधीश को प्रस्तुत की जाए ताकि बड़ी पीठ यह तय कर सके कि क्या इंदिरा जयसिंह दिशानिर्देशों में मूलभूत संशोधन की आवश्यकता है।
अंत में न्यायालय ने दोहराया:
“यह सम्मान और गरिमा केवल और केवल उन सबसे योग्य और उत्कृष्ट अधिवक्ताओं को ही मिलनी चाहिए।”