पटना हाईकोर्ट ने केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (CISF) के एक कांस्टेबल को दी गई अनिवार्य सेवानिवृत्ति की सज़ा को अत्यधिक कठोर करार देते हुए अनुशासनात्मक प्राधिकारी को निर्देश दिया है कि वह इस दंड पर पुनर्विचार करे और परिस्थितियों के अनुसार कोई कम सख़्त सज़ा निर्धारित करे।
यह आदेश न्यायमूर्ति पूर्णेंदु सिंह की एकल पीठ ने पारित किया, जिन्होंने याचिकाकर्ता देव नारायण सिंह द्वारा दायर रिट याचिका का निस्तारण करते हुए 5 फरवरी 2011 की अनुशासनात्मक कार्रवाई, 28 जून 2011 का अपीली आदेश और 3 नवम्बर 2011 का पुनरीक्षण आदेश — सभी को चुनौती देने वाली याचिका पर निर्णय दिया।
पृष्ठभूमि
देव नारायण सिंह CISF की BCCL, धनबाद इकाई में कांस्टेबल के पद पर कार्यरत थे। उन पर CISF नियमावली, 2001 (2007 में संशोधित) के नियम 36 के तहत अनुशासनात्मक कार्यवाही की गई थी। आरोप एक लोडिंग क्लर्क सहदेव ठाकुर द्वारा लगाए गए थे, जिनमें बिना अनुमति ड्यूटी से अनुपस्थित रहना, ड्यूटी के दौरान लोडिंग क्लर्क से झगड़ा करना, तथा पूर्व में 11 बार दंडित होने का उल्लेख था।
विभागीय जांच के उपरांत अनुशासनात्मक प्राधिकारी ने उन्हें दोषी पाते हुए अनिवार्य सेवानिवृत्ति की सज़ा दी थी, जिसे अपीली और पुनरीक्षण प्राधिकारियों ने भी यथावत रखा।
याचिकाकर्ता की दलीलें
याचिकाकर्ता की ओर से तर्क दिया गया कि उन्हें न तो प्रारंभिक जांच रिपोर्ट उपलब्ध कराई गई, न ही कारण बताओ नोटिस दिया गया, जिससे उन्हें निष्पक्ष सुनवाई का अवसर नहीं मिला। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि लगाए गए आरोप पूरी तरह से सिद्ध नहीं हुए और सेवा की अवधि व आचरण को देखते हुए सज़ा अत्यधिक कठोर है।
याचिकाकर्ता ने Union of India & Anr. v. R.K. Sharma (Civil Appeal No. 4059 of 2015) तथा Amrendra Kumar Pandey v. Union of India [2022 LiveLaw (SC) 600] में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों पर भरोसा किया, जिनमें कहा गया है कि सज़ा का अनुपात आरोप की गंभीरता के अनुसार होना चाहिए।
प्रतिवादी की दलीलें
भारत सरकार की ओर से पेश अधिवक्ता ने दलील दी कि CISF नियमों के अनुसार सभी आवश्यक प्रक्रियाएं अपनाई गईं और याचिकाकर्ता को अपने बचाव का पूरा अवसर दिया गया। यह भी कहा गया कि प्रारंभिक जांच रिपोर्ट आवश्यक दस्तावेज नहीं है, इसलिए उसे साझा नहीं किया गया।
न्यायालय के अवलोकन और निर्णय
न्यायमूर्ति पूर्णेंदु सिंह ने अवलोकन किया कि लोडिंग क्लर्क सहदेव ठाकुर द्वारा की गई शिकायत, जो अनुशासनात्मक कार्यवाही का आधार बनी, याचिकाकर्ता को कभी दी ही नहीं गई। न्यायालय ने यह भी नोट किया कि किसी विधिवत प्रारंभिक जांच का प्रमाण रिकॉर्ड पर नहीं था।
अदालत ने कहा कि जब बड़ी सज़ा दी जाती है, जैसे सेवा से बर्खास्तगी या अनिवार्य सेवानिवृत्ति, तब संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) और अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) लागू होते हैं, और ऐसी सज़ा तर्कसंगत और न्यायसंगत होनी चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले का उल्लेख करते हुए पटना हाईकोर्ट ने कहा:
“सेवा से बर्खास्तगी की सज़ा अत्यधिक कठोर है, अनुपातहीन है और प्रतिवादी के विरुद्ध सिद्ध आरोप की प्रकृति के अनुरूप नहीं है।”
अंततः न्यायालय ने निर्देश दिया:
“सेवा से बर्खास्तगी की सज़ा अत्यधिक कठोर है, इसलिए यह मामला अनुशासनात्मक प्राधिकारी को वापस भेजा जाता है, ताकि वह मामले की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए कम कठोर सज़ा निर्धारित करे और याचिकाकर्ता को आर्थिक और सेवा लाभ प्रदान करे।”
हाईकोर्ट ने अनुशासनात्मक प्राधिकारी को यह पुनर्विचार कार्य आदेश की प्राप्ति की तिथि से तीन माह के भीतर पूरा करने का निर्देश दिया।