दिल्ली हाईकोर्ट में PIL : न्यायिक रिक्तियों को भरने के लिए शीघ्र कार्रवाई की मांग, गंभीर कमी का हवाला

दिल्ली हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका (PIL) दायर कर न्यायाधीशों की भारी कमी को दूर करने के लिए तुरंत कदम उठाने की मांग की गई है। याचिकाकर्ता का कहना है कि यह कमी न्याय वितरण प्रणाली को गंभीर रूप से प्रभावित कर रही है और न्यायपालिका में जनता के विश्वास को कमजोर कर रही है।

यह याचिका अधिवक्ता अमित सहनी द्वारा दायर की गई है, जिस पर अगले सप्ताह मुख्य न्यायाधीश डी. के. उपाध्याय और न्यायमूर्ति तुषार राव गेडेला की पीठ के समक्ष सुनवाई होने की संभावना है। सहनी ने अदालत से अनुरोध किया है कि वह संबंधित प्राधिकरणों को बार से योग्य जिला न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं की पदोन्नति की प्रक्रिया शीघ्र शुरू करने का निर्देश दे।

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याचिका के अनुसार, दिल्ली हाईकोर्ट की स्वीकृत न्यायाधीश संख्या 60 है—जिसमें 45 स्थायी और 15 अतिरिक्त न्यायाधीश शामिल हैं—लेकिन वर्तमान में केवल 36 न्यायाधीश कार्यरत हैं, जो लगभग 40% रिक्तियों को दर्शाता है। याचिकाकर्ता ने इसे सेवानिवृत्ति, अंतर-न्यायालय तबादलों और नियुक्तियों में देरी का परिणाम बताया है, जबकि संविधान और मौजूदा प्रक्रिया ज्ञापन (MoP) नियुक्तियों की समयबद्ध प्रक्रिया सुनिश्चित करने की अपेक्षा करता है।

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याचिका में कहा गया है कि हाल ही में न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा, सी. डी. सिंह और दिनेश कुमार शर्मा के अन्य उच्च न्यायालयों में तबादले और कई न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति के कारण अदालत में कमी आई है। आगामी भविष्य में दो और सेवानिवृत्तियां होने की संभावना है, जिससे कार्यरत न्यायाधीशों की संख्या घटकर 34 रह सकती है, जो रिट याचिकाओं, जमानत याचिकाओं, अपीलों और वाणिज्यिक विवादों जैसे मामलों में लंबित मामलों की स्थिति को और गंभीर बना सकती है।

सहनी ने याचिका में कहा है, “न्यायाधीशों की निरंतर कमी के कारण वर्तमान न्यायाधीशों पर अत्यधिक कार्यभार, महत्वपूर्ण मामलों में देरी और न्यायपालिका में जनता के विश्वास में गिरावट आई है।” उन्होंने तर्क दिया कि न्यायिक देरी से सबसे अधिक आर्थिक रूप से कमजोर और हाशिए पर रहने वाले वर्ग प्रभावित होते हैं, जिनके पास लंबे समय तक चलने वाली कानूनी प्रक्रियाओं को झेलने के संसाधन नहीं होते।

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याचिकाकर्ता ने यह भी जोर दिया है कि न्यायिक रिक्तियों को केवल प्रशासनिक चूक के रूप में नहीं, बल्कि मौलिक अधिकारों और संस्थागत विश्वसनीयता से जुड़े मुद्दे के रूप में देखा जाना चाहिए।

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