जबलपुर स्थित मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा है कि किसी सरकारी ड्राइवर को जज की ट्रेन छूटने की घटना के चलते सेवा से बर्खास्त करना अत्यधिक कठोर और अनुपातहीन दंड है। मुख्य न्यायाधीश संजीव सचदेवा और न्यायमूर्ति विनय सराफ की खंडपीठ ने याचिकाकर्ता के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई में दोष सिद्ध होने की पुष्टि तो की, लेकिन यह भी कहा कि सेवा से हटाने की सजा “तर्क के प्रतिकूल और चौंकाने वाली” है।
पृष्ठभूमि
विजय सिंह भदौरिया, जो भोपाल के जिला एवं सत्र न्यायालय में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के रूप में ड्राइवर थे, को 24 फरवरी 2007 के आदेश के तहत विभागीय जांच के बाद सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था। यह कार्रवाई इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति एस.के. सिंह की शिकायत पर शुरू की गई थी, जिन्होंने 19 नवंबर 2006 की रात भोपाल से इलाहाबाद जाने वाली ट्रेन छूट जाने की जानकारी दी थी। आरोप था कि ड्राइवर समय पर नहीं पहुँचा और नशे की हालत में था।
विभागीय आरोप और जांच
भदौरिया को न्यायमूर्ति एस.के. सिंह को रात 1:30 बजे स्टेशन पहुँचाने की जिम्मेदारी दी गई थी, लेकिन वे 2:15 बजे वीआईपी गेस्ट हाउस पहुँचे, तब तक ट्रेन जा चुकी थी। न्यायाधीश ने सहायक प्रोटोकॉल अधिकारी को लिखित शिकायत सौंपी, जिसमें ड्राइवर के नशे में होने का आरोप लगाया गया।

विभागीय जांच के दौरान:
- सुरेश सिंह, रेलवे मजिस्ट्रेट, भोपाल ने गवाही दी कि ड्राइवर सामान्य स्थिति में नहीं था।
- संतोष सिंह, सहायक प्रोटोकॉल अधिकारी ने पुष्टि की कि उन्होंने न्यायाधीश की लिखित शिकायत प्राप्त की थी।
- चुनम्मा नाथ, लेखाकार, ने बताया कि याचिकाकर्ता के विरुद्ध पूर्व में भी शिकायत दर्ज की गई थी।
वहीं याचिकाकर्ता ने आरोपों से इनकार किया और बताया कि देरी का कारण साइकिल का पंचर होना था। उसने बचाव पक्ष के गवाह के रूप में होम गार्ड सुनील कुमार को पेश किया।
न्यायालय का विश्लेषण
खंडपीठ ने माना कि विभागीय जांच उचित रूप से की गई और याचिकाकर्ता को पूरा अवसर दिया गया। कोर्ट ने कहा:
“याचिकाकर्ता के विरुद्ध लगाए गए आरोप विभागीय जांच में उचित गवाहों की गवाही से सिद्ध हुए।”
लेकिन न्यायालय ने यह भी टिप्पणी की:
“सेवा से हटाने की सजा तर्क और न्याय की दृष्टि से अत्यधिक है और यह चौंकाने वाली है।”
कोर्ट ने माना कि कदाचार सिद्ध है, लेकिन सजा उस स्तर की नहीं होनी चाहिए थी।
निर्णय
हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ता के विरुद्ध लगाए गए आरोपों को बरकरार रखते हुए बर्खास्तगी का आदेश रद्द कर दिया। मुख्य न्यायाधीश संजीव सचदेवा और न्यायमूर्ति विनय साराफ ने निर्देश दिया कि अनुशासनात्मक प्राधिकारी तीन माह के भीतर यथोचित सजा पर पुनर्विचार करे। याचिकाकर्ता को तत्काल सेवा में बहाल किया जाए, लेकिन उसे पिछले वेतन का भुगतान नहीं मिलेगा, क्योंकि “कोई काम नहीं, तो वेतन नहीं” का सिद्धांत लागू होगा।