दीर्घकालीन लिव-इन संबंध में स्वैच्छिक सहमति का अनुमान स्वतः उत्पन्न होता है: सुप्रीम कोर्ट ने दुष्कर्म की एफआईआर रद्द की

सुप्रीम कोर्ट ने रविश सिंह राणा बनाम उत्तराखंड राज्य मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 376 और अन्य धाराओं के तहत दर्ज एफआईआर को रद्द करते हुए यह स्पष्ट किया कि यदि दो वयस्क लंबे समय तक लिव-इन संबंध में रहते हैं, तो यह माना जाता है कि उन्होंने इस प्रकार का संबंध पूरी समझदारी और स्वैच्छिक रूप से चुना है। न्यायालय ने कहा कि केवल विवाह का वादा पूरा न होने के आधार पर दुष्कर्म का मुकदमा कायम नहीं किया जा सकता, विशेषकर जब यह आरोप न हो कि शारीरिक संबंध केवल विवाह के वादे पर आधारित थे।

पृष्ठभूमि:

यह मामला उत्तराखंड के उधम सिंह नगर जिले के खटीमा थाने में दर्ज एफआईआर संख्या 482/2023 से उत्पन्न हुआ था, जिसमें दूसरी पक्षकार (याचिका में प्रतिवादी संख्या 2) ने यह आरोप लगाया था कि वह फेसबुक के माध्यम से appellant रविश सिंह राणा से वर्ष 2021 में मिली थी और बाद में दोनों लिव-इन रिलेशनशिप में रहने लगे थे। आरोप यह था कि अपीलकर्ता ने विवाह का झूठा वादा कर शारीरिक संबंध स्थापित किया और 18.11.2023 को यौन शोषण किया। एफआईआर आईपीसी की धारा 376, 323, 504 और 506 के तहत दर्ज की गई थी।

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अपीलकर्ता ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (पूर्व में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के समकक्ष) की धारा 528 के तहत उत्तराखंड हाईकोर्ट में याचिका दायर कर एफआईआर रद्द करने की मांग की थी, जिसे 11.12.2024 को खारिज कर दिया गया।

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अपीलकर्ता की दलीलें:

सुप्रीम कोर्ट में अपीलकर्ता की ओर से यह तर्क दिया गया कि दोनों पक्ष वयस्क थे और दो वर्षों से एक साथ एक ही छत के नीचे रह रहे थे। दोनों ने 19.11.2023 को एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे जिसमें विवाह की मंशा और आपसी सहमति से संबंध होने की बात कही गई थी। अपीलकर्ता का कहना था कि एफआईआर झूठी है और उसे तथा उसके परिवार को ब्लैकमेल करने के उद्देश्य से दर्ज की गई है।

प्रतिवादी की दलीलें:

प्रतिवादी की ओर से यह कहा गया कि समझौते में यह उल्लेख था कि यदि विवाह नहीं हुआ तो कानूनी कार्रवाई की जा सकती है। इस आधार पर एफआईआर दर्ज की गई। यह भी तर्क दिया गया कि शारीरिक संबंध विवाह के झूठे वादे पर आधारित थे, जिससे सहमति अमान्य हो जाती है। उन्होंने प्रमोद सुर्यभान पवार बनाम महाराष्ट्र राज्य (2019) 9 SCC 608 मामले पर भरोसा किया।

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न्यायालय का विश्लेषण:

न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने तथ्यों की समीक्षा करते हुए कहा कि दोनों पक्षों के बीच दो वर्ष से अधिक समय तक चला लिव-इन संबंध स्पष्ट था। एफआईआर में ऐसा कोई आरोप नहीं था कि शारीरिक संबंध केवल विवाह के वादे पर आधारित थे।

न्यायालय ने दीपक गुलाटी बनाम हरियाणा राज्य (2013) 7 SCC 675 तथा सोनू उर्फ सुबाष कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2021) 18 SCC 517 में दिए गए निर्णयों का हवाला देते हुए यह दोहराया कि विवाह का केवल वादा तोड़ देना तब तक झूठा वादा नहीं माना जा सकता जब तक यह सिद्ध न हो कि आरोपी ने वादा करते समय विवाह की कोई मंशा नहीं रखी थी।

न्यायालय ने यह महत्वपूर्ण टिप्पणी की:

“यदि दो समझदार वयस्क एक-दूसरे के साथ एक लिव-इन संबंध में वर्षों तक रहते हैं और सहवाह करते हैं, तो यह माना जाएगा कि उन्होंने पूरी जानकारी और समझदारी से इस प्रकार के संबंध को चुना है।”

न्यायालय ने आगे कहा:

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“यह आरोप कि यह संबंध केवल विवाह के वादे पर आधारित था, वर्तमान परिस्थितियों में स्वीकार करने योग्य नहीं है, विशेषकर जब ऐसा कोई आरोप नहीं है कि विवाह का वादा न होता तो शारीरिक संबंध नहीं बनते।”

न्यायालय ने यह भी उल्लेख किया कि 19.11.2023 को किया गया आपसी समझौता, जिसमें दोनों पक्षों के प्रेम और प्रतिबद्धता की बात कही गई थी, 18.11.2023 को हुए कथित यौन शोषण के आरोप का खंडन करता है।

निर्णय:

सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए एफआईआर और उससे संबंधित सभी कार्यवाहियों को रद्द कर दिया और इसे न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग बताया। साथ ही, 11.12.2024 को उत्तराखंड हाईकोर्ट द्वारा पारित निर्णय को भी रद्द कर दिया।

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