सुप्रीम कोर्ट में मंगलवार को केंद्र सरकार ने केरल सरकार के उस फैसले का विरोध किया जिसमें राज्यपाल द्वारा विधेयकों पर सहमति देने में देरी को लेकर दायर याचिका को वापस लेने की बात कही गई थी।
केरल सरकार की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता के.के. वेणुगोपाल ने न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति जॉयमाल्य बागची की पीठ के समक्ष याचिका को वापस लेने की बात रखी। इस पर सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने आपत्ति जताते हुए कहा, “यह संवैधानिक मुद्दा है। इसे हल्के में दाखिल और हल्के में वापस नहीं लिया जा सकता… हम इस पर काम कर रहे हैं।”
मेहता ने कहा कि जब इस स्तर के वरिष्ठ वकील याचिका वापस लेते हैं, तो यह गंभीरता से लिया जाना चाहिए। इस पर वेणुगोपाल ने जवाब दिया कि यह याचिका अब निरर्थक हो गई है क्योंकि संबंधित विधेयकों को बाद में राष्ट्रपति के पास भेज दिया गया था। उन्होंने यह भी बताया कि इस मुद्दे को केरल सरकार की बाद की याचिका में चुनौती दी गई है।
कोर्ट ने राज्य सरकार के याचिका वापस लेने के अधिकार को स्वीकार करते हुए मामले को 13 मई को अगली सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया।
इससे पहले 22 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि वह तमिलनाडु सरकार की एक याचिका पर दिए गए हालिया फैसले की समीक्षा करेगा, ताकि यह स्पष्ट हो सके कि क्या वह फैसला केरल सरकार की याचिकाओं से जुड़े मुद्दों को भी कवर करता है। 8 अप्रैल को न्यायमूर्ति जेबी पारडीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने तमिलनाडु के 10 विधेयकों को दोबारा राष्ट्रपति के पास भेजने को अवैध और कानून के विपरीत बताया था और राष्ट्रपति को तीन महीने की समयसीमा के भीतर निर्णय लेने का निर्देश दिया था।
वेणुगोपाल ने कहा कि तमिलनाडु मामले में दिया गया निर्णय केरल की याचिकाओं पर भी लागू होता है और उसी के अनुरूप राज्य की याचिकाओं को भी निपटाया जाए। वहीं, सॉलिसिटर जनरल मेहता ने तर्क दिया कि केरल का मामला भिन्न है और उस पर अलग से सुनवाई होनी चाहिए।
कोर्ट ने वेणुगोपाल से केरल सरकार की तीसरी याचिका—जिसमें राष्ट्रपति द्वारा चार विधेयकों पर सहमति रोकने को चुनौती दी गई है—को मुख्य न्यायाधीश के समक्ष उल्लेख करने को कहा, ताकि उसे मौजूदा मामले के साथ जोड़ा जा सके। वेणुगोपाल ने बताया कि मुख्य न्यायाधीश पहले ही उस याचिका को 13 मई को सूचीबद्ध करने का निर्देश दे चुके हैं।
गौरतलब है कि 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने उस समय नाराजगी जताई थी जब केरल के तत्कालीन राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर दो वर्षों तक कोई निर्णय नहीं लिया था। केरल सरकार ने आरोप लगाया था कि राज्यपाल ने सात विधेयकों को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के पास भेज दिया और वे अब भी लंबित हैं।
राज्य का कहना था कि इन सातों विधेयकों का केंद्र-राज्य संबंधों से कोई लेना-देना नहीं था और राज्यपाल को इन पर स्वयं निर्णय लेना चाहिए था। इन विधेयकों में विश्वविद्यालयों और सहकारी समितियों से संबंधित संशोधन विधेयक शामिल हैं।
राज्य ने दावा किया कि राज्यपाल की निष्क्रियता ने विधानसभा की कार्यप्रणाली को “निष्क्रिय और अप्रभावी” बना दिया है। याचिका में कहा गया, “ये विधेयक जनहित से संबंधित हैं और इन पर भी निर्णय नहीं लिया गया, जबकि संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल को इन पर ‘जितनी जल्दी संभव हो’ कार्यवाही करनी चाहिए थी।”
अब जबकि राष्ट्रपति ने चार विधेयकों पर सहमति नहीं दी है, यह सवाल और भी महत्वपूर्ण हो गया है कि क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति विधेयकों पर अनिश्चितकालीन विलंब कर सकते हैं—इस संवैधानिक प्रश्न पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय दूरगामी प्रभाव डाल सकता है।