बॉम्बे हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को 1990 में भूमि अधिग्रहण के बावजूद एक ग्रामीण महिला को मुआवज़ा न देने के लिए कड़ी फटकार लगाई है। कोर्ट ने इसे संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन बताते हुए सरकार को चार महीने के भीतर मुआवज़ा ब्याज सहित अदा करने का निर्देश दिया है।
न्यायमूर्ति गिरीश कुलकर्णी और न्यायमूर्ति सोमशेखर सुंदरसन की पीठ ने 2 मई को यह आदेश सुनाया। यह याचिका कोल्हापुर जिले के व्हानूर गांव की निवासी सुमित्रा श्रीधर खाणे ने दायर की थी, जिनकी जमीन वर्ष 1990 में दूधगंगा सिंचाई परियोजना से विस्थापितों के पुनर्वास के लिए अधिग्रहित की गई थी।
पीठ ने टिप्पणी की, “बिना कानूनी प्रक्रिया के किसी की जमीन लेना और फिर मुआवज़ा न देना न केवल अनुचित है, बल्कि यह संविधान के अनुच्छेद 300A का खुला उल्लंघन है। यह एक निरंतर अन्याय का मामला है, जो आज तक जारी है।”
राज्य सरकार का यह तर्क कि खाणे ने स्वेच्छा से भूमि दी थी और इसलिए उन्हें मुआवज़ा नहीं बनता, कोर्ट ने खारिज कर दिया। अदालत ने स्पष्ट कहा कि याचिकाकर्ता ने कभी भी अपने मुआवज़े के अधिकार का त्याग नहीं किया।
कोर्ट ने कहा, “हर नागरिक को अपने संवैधानिक अधिकारों की जानकारी नहीं होती और न ही उनके पास कानूनी लड़ाई लड़ने के संसाधन होते हैं। इसलिए यह राज्य के अधिकारियों की संवैधानिक ज़िम्मेदारी है कि वे कानून का पालन करें और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करें।”
न्यायालय ने सरकार के रवैये को “चौंकाने वाला” बताते हुए कहा कि शासन को चाहिए कि वह सभी नागरिकों के साथ समानता का व्यवहार करे—चाहे वे संपन्न हों या साधनहीन। “एक कल्याणकारी राज्य में कानून के दो मापदंड नहीं हो सकते,” कोर्ट ने टिप्पणी की।
न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार को निर्देश दिया कि वह चार महीने के भीतर खाणे को भूमि अधिग्रहण का उचित मुआवज़ा और ब्याज का भुगतान करे। साथ ही, कोर्ट ने याचिकाकर्ता को ₹25,000 की कानूनी लागत देने का भी आदेश दिया।
कोर्ट ने अपने आदेश में कहा, “संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों का उल्लंघन सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं है। राज्य का कर्तव्य है कि वह कानून के तहत कार्य करे और जहाँ गलती हो, वहाँ सुधारात्मक कदम उठाए।”