सुप्रीम कोर्ट ने अखिलेश बनाम राज्य मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 319 के तहत ट्रायल कोर्ट द्वारा दो व्यक्तियों को अतिरिक्त अभियुक्त के रूप में तलब करने के आदेश को बहाल कर दिया। न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की खंडपीठ ने यह निर्णय सुनाया और कहा कि हाईकोर्ट द्वारा इस आदेश को निरस्त करना उचित नहीं था, विशेष रूप से जब ट्रायल कोर्ट का आदेश प्रत्यक्षदर्शियों की सुसंगत गवाही पर आधारित था।
पृष्ठभूमि:
अपीलकर्ता अखिलेश ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के 08.07.2024 के आदेश को चुनौती दी थी, जिसके द्वारा कृष्णपाल सिंह और संजू @ संजय (उत्तरदाता सं. 2 और 3) की आपराधिक पुनरीक्षण याचिका को स्वीकार करते हुए ट्रायल कोर्ट के 07.07.2023 के आदेश को रद्द कर दिया गया था। ट्रायल कोर्ट ने इन दोनों को धारा 319 CrPC के तहत तलब किया था। हाईकोर्ट के आदेश से असंतुष्ट होकर अपीलकर्ता सुप्रीम कोर्ट पहुँचे।
मामले के तथ्य:
15 नवंबर 2021 को थाना दातागंज, बदायूं, उत्तर प्रदेश में प्राथमिकी संख्या 349/2021 दर्ज की गई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि भूमि विवाद के चलते चार लोगों—गजेन्द्र, महेन्द्रपाल, कृष्णपाल (उत्तरदाता सं. 2) और संजू (उत्तरदाता सं. 3)—ने मिलकर अपीलकर्ता के पिता की गोली मारकर हत्या कर दी थी।
पुलिस ने गजेन्द्र और महेन्द्रपाल के विरुद्ध धारा 302, 504 और 506 IPC के तहत चार्जशीट दाखिल की, जबकि उत्तरदाता सं. 2 और 3 के पक्ष में अंतिम रिपोर्ट दायर कर दी। हालांकि, गवाहों PW-1 (अपीलकर्ता स्वयं) और PW-2 (मृतक के चचेरे भाई पृथ्वीराज) की गवाही के आधार पर ट्रायल कोर्ट ने इन्हें भी तलब किया।
पक्षकारों की दलीलें:
अपीलकर्ता की ओर से तर्क दिया गया कि PW-1 और PW-2 दोनों ने स्पष्ट रूप से यह गवाही दी कि उत्तरदाता सं. 2 और 3 घटना स्थल पर उपस्थित थे और उन्होंने मृतक पर गोली चलाई। वहीं, उत्तरदाताओं की ओर से तर्क दिया गया कि पुलिस ने धारा 161 CrPC के अंतर्गत कुछ गवाहों के बयान के आधार पर उन्हें क्लीन चिट दी थी, जिसमें कहा गया कि वे घटना के समय मंदिर में एक अंतिम संस्कार में मौजूद थे। उन्होंने PW-1 और PW-2 की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाए।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण:
सुप्रीम कोर्ट ने पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट, प्राथमिकी और दोनों प्रत्यक्षदर्शी गवाहों की गवाही का संज्ञान लिया और ट्रायल कोर्ट के आदेश को उचित ठहराया। न्यायालय ने कहा:
“घटना के कुछ ही घंटों के भीतर दर्ज की गई प्राथमिकी में उत्तरदाता सं. 2 और 3 के नाम स्पष्ट रूप से उल्लिखित हैं और प्रत्यक्षदर्शियों ने इनकी उपस्थिति की पुष्टि की है।”
न्यायालय ने राजेश बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा (2019) 6 SCC 368 के संदर्भ में दोहराया:
“धारा 319 CrPC के तहत शक्ति उस स्थिति में भी प्रयोग की जा सकती है जब गवाह की मुख्य परीक्षा में यह तथ्य सामने आता हो; क्रॉस एग्जामिनेशन की प्रतीक्षा करना आवश्यक नहीं है।”
साथ ही, एस. मोहम्मद इस्पहानी बनाम योगेन्द्र चंडक, (2017) 16 SCC 226 को उद्धृत करते हुए कोर्ट ने यह भी कहा कि:
“कोई व्यक्ति भले ही चार्जशीट में अभियुक्त न हो, लेकिन यदि ट्रायल के दौरान उसके विरुद्ध साक्ष्य सामने आते हैं, तो उसे तलब किया जा सकता है।”
न्यायालय ने टिप्पणी की:
“धारा 319 CrPC के अंतर्गत शक्तियां व्यापक हैं और यदि किसी व्यक्ति की अपराध में संलिप्तता प्रतीत होती है, परंतु वह अभियुक्त के रूप में कोर्ट के समक्ष नहीं लाया गया हो, तो उसे तलब किया जा सकता है…”
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि हाईकोर्ट ने धारा 161 CrPC के बयानों को आवश्यकता से अधिक महत्व दिया जबकि PW-1 और PW-2 की सीधी गवाही को नजरअंदाज कर दिया।
“इस स्तर पर इस न्यायालय द्वारा साक्ष्य की विश्वसनीयता का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता, ये सभी विषय ट्रायल के दौरान तय होंगे।”
निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने अपील को स्वीकार करते हुए हाईकोर्ट का आदेश दिनांक 08.07.2024 रद्द कर दिया और ट्रायल कोर्ट के आदेश दिनांक 07.07.2023 को बहाल कर दिया, जिसके तहत उत्तरदाता सं. 2 और 3 को धारा 319 CrPC के तहत मुकदमे का सामना करने हेतु तलब किया गया था। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह निर्णय केवल अपील तक सीमित है और इसका प्रभाव ट्रायल की मेरिट पर नहीं पड़ेगा।