ईसाई धर्म में धर्मांतरण के बाद अनुसूचित जाति का दर्जा समाप्त होता है, एससी/एसटी एक्ट के तहत संरक्षण नहीं मिलेगा: आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट

आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने अक्काला रामी रेड्डी बनाम आंध्र प्रदेश राज्य वाद में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत आरोपित आपराधिक कार्यवाही को रद्द करते हुए यह निर्णय दिया कि शिकायतकर्ता एक प्रैक्टिसिंग ईसाई और पास्टर होने के नाते इस अधिनियम के संरक्षणात्मक प्रावधानों का लाभ नहीं ले सकता। न्यायमूर्ति हरिनाथ एन. ने कहा कि ईसाई धर्म में धर्मांतरण के बाद अनुसूचित जाति की स्थिति समाप्त हो जाती है, और शिकायतकर्ता ने इस अधिनियम का दुरुपयोग किया है।

पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ताओं के विरुद्ध SC/ST एक्ट की धारा 3(1)(r), 3(1)(s), 3(2)(va) तथा आईपीसी की धारा 341, 506, 323/34 के तहत मामला दर्ज किया गया था। यह प्राथमिकी 26 जनवरी 2021 को दर्ज की गई थी, जो कि गुन्टूर ज़िले के पिट्टलावनीपालेम गाँव के एक पास्टर (द्वितीय प्रतिवादी) द्वारा दर्ज कराई गई थी। शिकायत में आरोप लगाया गया कि रविवार की प्रार्थना सभा के दौरान और बाद में जातिसूचक गालियाँ दी गईं और जान से मारने की धमकी दी गई।

याचिकाकर्ताओं की ओर से प्रस्तुत तर्क

याचिकाकर्ताओं के अधिवक्ता ने तर्क दिया कि शिकायतकर्ता एक ईसाई पास्टर है और भारत के संविधान (अनुसूचित जातियाँ) आदेश, 1950 के तहत अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं रख सकता, क्योंकि यह दर्जा केवल हिंदू धर्म (एवं कुछ संबद्ध धर्मों) को मानने वालों तक सीमित है। उन्होंने निम्नलिखित निर्णयों का हवाला दिया:

  • चिन्नी अप्पा राव बनाम आंध्र प्रदेश राज्य [2016 (1) ALD (Cri) 545]
  • सी. सेल्वारानी बनाम विशेष सचिव–सह–जिला कलेक्टर [AIR Online 2024 SC 793]

यह भी दलील दी गई कि यह शिकायत सुरक्षा प्रदान करने वाले कानून का दुरुपयोग है और आईपीसी के आरोपों को समर्थन देने वाला कोई पर्याप्त साक्ष्य नहीं है।

प्रतिवादी की ओर से प्रस्तुत तर्क

दूसरे प्रतिवादी (शिकायतकर्ता) की ओर से प्रस्तुत किया गया कि तहसीलदार द्वारा जारी जाति प्रमाण पत्र (गवाह संख्या 12) में उन्हें “हिंदू-मादिगा” (एक अनुसूचित जाति) बताया गया है, अतः एससी/एसटी एक्ट के अंतर्गत शिकायत बनाए रखने योग्य है। यह भी कहा गया कि जाँच के परिणामस्वरूप आरोप-पत्र दाखिल किया गया था, जिसे कई गवाहों के बयान और साधारण चोट का मेडिकल प्रमाण समर्थन दे रहे थे।

इस संबंध में निम्नलिखित निर्णयों पर भरोसा किया गया:

  • कुरपाटी मारिया दास बनाम डॉ. अंबेडकर सेवा समाजान [2009 LawSuit (SC) 624]
  • मोहम्मद सादिक बनाम डबर सिंह गुरु [(2016) 11 SCC 617]
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इन निर्णयों में यह कहा गया कि जाति जन्म पर आधारित होती है और धर्मांतरण से वह स्वतः समाप्त नहीं होती।

न्यायालय की टिप्पणियाँ

न्यायालय ने शिकायतकर्ता की धार्मिक स्थिति का गहराई से विश्लेषण करते हुए कहा:

“द्वितीय प्रतिवादी पिट्टलावनीपालेम मंडल के पास्टर्स फेलोशिप में कोषाध्यक्ष के रूप में कार्य कर रहा है। पास्टर बनने के लिए ईसाई धर्म में धर्मांतरण आवश्यक है। स्पष्ट है कि द्वितीय प्रतिवादी एक ईसाई है और ईसाई धर्म का पालन कर रहा है।”

न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का उल्लेख करते हुए दोहराया:

“एक धर्मांतरित व्यक्ति किसी भी जाति का सदस्य नहीं रहता।”

“जाति व्यवस्था ईसाई धर्म में नहीं पाई जाती। जब कोई व्यक्ति ईसाई धर्म अपना लेता है और गिरजाघर में पास्टर की भूमिका निभा रहा हो, तब वह अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के प्रावधानों का सहारा नहीं ले सकता।”

इसके अतिरिक्त न्यायालय ने स्पष्ट किया:

“सिर्फ इसलिए कि जाति प्रमाण पत्र रद्द नहीं हुआ है, इसका यह अर्थ नहीं कि शिकायतकर्ता को सुरक्षा अधिनियम के तहत संरक्षण मिल जाएगा।”

न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि धर्मांतरण के पश्चात शिकायतकर्ता अनुसूचित जाति सदस्य नहीं रहा और उसने अधिनियम का दुरुपयोग किया।

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आईपीसी के आरोपों पर विचार

न्यायालय ने आईपीसी की धाराओं 341, 506, 323/34 के अंतर्गत लगाए गए आरोपों के समर्थन में पर्याप्त और सुसंगत साक्ष्य न होने की बात कही। गवाहों के बयान विरोधाभासी पाए गए। न्यायालय ने कहा:

“इन आरोपों के आधार पर आईपीसी की धाराएं 341, 506, 323/34 मुकदमे की पूरी प्रक्रिया के बाद भी स्थापित नहीं की जा सकतीं।”

निर्णय

हाईकोर्ट ने यह मानते हुए कि शिकायतकर्ता द्वारा संरक्षणात्मक विधि का दुरुपयोग हुआ है, आपराधिक याचिका को स्वीकार कर लिया और विशेष एससी सं. 36/2021 को रद्द कर दिया। न्यायालय ने कहा:

“अगर याचिकाकर्ताओं को ट्रायल कोर्ट भेजा जाता है, तो यह केवल औपचारिकता और समय की बर्बादी होगी।”

सभी लंबित अंतरिम प्रार्थनापत्र भी बंद कर दिए गए।

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