हाईकोर्ट अनुच्छेद 227 के तहत वाद पत्र खारिज नहीं कर सकता: सुप्रीम कोर्ट ने पुष्टि की कि यह केवल पर्यवेक्षणीय अधिकार है


सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 227 के अंतर्गत हाईकोर्ट वाद पत्र (plaint) को खारिज नहीं कर सकता, क्योंकि यह कार्य सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत निचली अदालत की मूल अधिकारिता (original jurisdiction) में आता है। यह निर्णय के. वलारमथी एवं अन्य बनाम कुमारेशन वाद में सुनाया गया, जिसमें हाईकोर्ट ने बेनामी संपत्ति लेन-देन निषेध अधिनियम, 1988 के आधार पर एक दीवानी वाद को खारिज कर दिया था।

मामले की पृष्ठभूमि

विवाद की जड़ एक कृषि भूमि (नंजा भूमि) की खरीद से जुड़ी है, जो कथिरेशन नामक व्यक्ति ने अपने भतीजे कुमारेशन (उत्तरवादी) के नाम पर ज्योतिषीय सलाह पर खरीदी थी। जीवनकाल में कथिरेशन स्वयं भूमि के कब्जे में थे, और उनके निधन के बाद उनकी पत्नी और बेटियों—जो कि इस वाद की याचिकाकर्ताएं हैं—ने भूमि पर अपना अधिकार बताया।

कथिरेशन की बहनों और याचिकाकर्ताओं के बीच संपत्ति को लेकर विवाद शुरू हुआ। इसी दौरान उत्तरवादी ने भूमि को बेचने की प्रक्रिया शुरू की, जिसके विरोध में याचिकाकर्ताओं ने O.S. No. 1087 of 2018 में शीर्षक की घोषणा (declaration of title) और स्थायी निषेधाज्ञा (injunction) की मांग करते हुए वाद दायर किया। एक अन्य संबंधित वाद O.S. No. 201 of 2018 अन्य संपत्तियों से संबंधित था।

उत्तरवादी ने दोनों वादों में वाद पत्र को खारिज करने के लिए अनुच्छेद 227 के तहत हाईकोर्ट में पुनरीक्षण याचिकाएं दायर कीं।

हाईकोर्ट की कार्यवाही

हाईकोर्ट ने CRP (MD) 210 of 2019 in O.S. No. 1087 of 2018 पर सुनवाई करते हुए यह माना कि वाद बेनामी अधिनियम के तहत कानून द्वारा वर्जित है और वाद पत्र को खारिज कर दिया। हालांकि, अन्य वाद CRP (MD) 125 of 2019 in O.S. No. 201 of 2018 में वाद पत्र खारिज करने से इनकार किया।

सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण

न्यायमूर्ति पामिडिघंटम श्री नरसिम्हा और न्यायमूर्ति जॉयमल्या बागची की पीठ ने यह निर्णय सुनाया।

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 227 के तहत हाईकोर्ट की शक्ति केवल पर्यवेक्षण की है और इसे उस अदालत की मूल अधिकारिता पर अतिक्रमण करने के लिए प्रयुक्त नहीं किया जा सकता जिसका वह पर्यवेक्षण करता है। यह शक्ति केवल स्पष्ट न्यायिक त्रुटियों को ठीक करने के लिए सीमित रूप में प्रयोग की जानी चाहिए, न कि सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के तहत वैधानिक उपायों को दरकिनार करने के लिए।

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सुप्रीम कोर्ट ने सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश VII नियम 11 का हवाला देते हुए कहा:

“आदेश VII नियम 11 में उन परिस्थितियों का उल्लेख है जिनमें ट्रायल कोर्ट वाद पत्र को खारिज कर सकती है। ऐसा खारिज किया जाना एक विधिक डिक्री मानी जाती है, जो सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 96 के तहत अपील योग्य होती है। इस वैधानिक ढांचे को अनुच्छेद 227 के पर्यवेक्षणीय अधिकार के माध्यम से नष्ट नहीं किया जा सकता।”

न्यायालय ने आगे कहा:

“त्वरित परिणाम प्राप्त करने के लिए प्रक्रिया को छोटा करना एक बोझिल न्यायपालिका की अवांछनीय प्रवृत्ति है। ऐसे प्रयास जो प्रक्रिया संबंधी सुरक्षा और मौलिक अधिकारों को निष्फल करते हैं, वे कानून में निश्चितता और स्थिरता को कमजोर करते हैं और इन्हें हतोत्साहित किया जाना चाहिए।”

पीठ ने Frost (International) Ltd. v. Milan Developers, (2022) 8 SCC 633 के मामले से वर्तमान वाद को अलग माना क्योंकि इस मामले में हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट की त्रुटि को सुधारा नहीं, बल्कि उसकी मूल अधिकारिता का अतिक्रमण कर वाद पत्र को स्वयं खारिज कर दिया।

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Jacky v. Tiny @ Antony & Ors., (2014) 6 SCC 508 का उल्लेख करते हुए कोर्ट ने कहा:

“किसी भी स्थिति में भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 और 227 के तहत अधिकारों का उपयोग वाद पत्र को चुनौती देने के लिए नहीं किया जा सकता।”

निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने दिनांक 11 जुलाई 2024 को हाईकोर्ट द्वारा पारित निर्णय को रद्द कर दिया और अपील स्वीकार कर ली। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि उसने वाद पत्र खारिज करने के उत्तरवादी के पक्ष की वैधानिकता पर कोई राय नहीं दी है और उन्हें ट्रायल कोर्ट में वैधानिक उपायों के अनुसार उचित राहत मांगने की स्वतंत्रता दी है।

प्रस्तावना: के. वलारमथी एवं अन्य बनाम कुमारेशन, सिविल अपील संख्या ___ / 2025 (SLP (C) No. 21466 of 2024 से उत्पन्न)

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