सुप्रीम कोर्ट ने पी. कुमारकुरुबरण बनाम पी. नारायणन एवं अन्य (सिविल अपील संख्या 5622/2025) में यह निर्णय दिया कि यदि सीमाबद्धता (limitation) का प्रश्न विवादित तथ्यों या दस्तावेज़ों की जानकारी की तिथि पर आधारित है, तो उसे दीवानी वाद प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के ऑर्डर VII नियम 11(d) के अंतर्गत प्रारंभिक चरण में संक्षेप में निपटाया नहीं जा सकता। न्यायमूर्ति जे.बी. पारडीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की खंडपीठ ने यह स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में सीमाबद्धता का प्रश्न एक मिश्रित तथ्य और विधिक प्रश्न होता है जिसे केवल साक्ष्य और परीक्षण के आधार पर ही तय किया जा सकता है। कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए मामला पुनः ट्रायल के लिए बहाल कर दिया।
मामले की पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता पी. कुमारकुरुबरण ने प्रधान जिला न्यायालय, चेंगलपट में वाद संख्या 310/2014 दायर किया था, जिसमें उन्होंने संपत्ति पर स्वामित्व की घोषणा, कुछ पंजीकृत दस्तावेजों (जैसे कि विक्रय पत्र, सेटलमेंट डीड, पावर ऑफ अटॉर्नी आदि) को निरस्त घोषित करने तथा प्रतिवादियों को हस्तक्षेप से रोकने के लिए स्थायी निषेधाज्ञा की प्रार्थना की थी।
वादपत्र में यह कहा गया था कि अपीलकर्ता को 1974 में विशेष तहसीलदार द्वारा उक्त संपत्ति आवंटित की गई थी और वे तब से उसका उपयोग कर रहे थे। उन्होंने 1978 में अपने पिता के पक्ष में एक सीमित उद्देश्य के लिए पावर ऑफ अटॉर्नी जारी की थी, जो केवल निर्माण और आवश्यक अनुमतियों हेतु था। लेकिन उनके पिता ने 1988 में प्रतिवादी संख्या 1 के पक्ष में संपत्ति विक्रय कर दी, जो अपीलकर्ता के अनुसार अवैध थी।
अपीलकर्ता ने यह दावा किया कि उन्हें इस लेनदेन की जानकारी 2011 में मिली, जिसके बाद उन्होंने शिकायत दी, पट्टा के लिए आवेदन किया, और अंततः 3 दिसंबर 2014 को वाद दायर किया।
प्रतिवादियों ने वाद पत्र की अस्वीकृति के लिए ऑर्डर VII नियम 11 CPC के तहत प्रार्थना पत्र दायर किया, जिसे ट्रायल कोर्ट ने खारिज कर दिया था। परंतु, हाईकोर्ट ने इसे सीमाबद्धता के आधार पर स्वीकार कर लिया।
सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत तर्क
अपीलकर्ता के वकील ने दलील दी कि वादपत्र में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि अपीलकर्ता को संपत्ति संबंधी विवादास्पद दस्तावेज़ों की जानकारी 2011 में हुई थी, और इसके तीन वर्ष के भीतर वाद दायर किया गया। इस तथ्य को जांच के बिना खारिज करना उचित नहीं है।
वहीं, प्रतिवादियों ने यह तर्क दिया कि चूंकि विक्रय पत्र 1988 में निष्पादित हुआ था और अपीलकर्ता प्रतिवादियों से निकट संबंधी हैं, इसलिए इतने वर्षों तक अनभिज्ञ बने रहना असंभव है। उन्होंने Dahiben बनाम Arvindbhai Kalyanji Bhanusali (2020) 7 SCC 366 सहित अन्य निर्णयों पर भी भरोसा किया।
सुप्रीम कोर्ट के विचार
कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि जब वादपत्र में सीमाबद्धता के आधार पर कोई विवादित तथ्य (जैसे जानकारी की तिथि) हो, तो उसे ट्रायल से पहले केवल वादपत्र पढ़कर निपटाया नहीं जा सकता। बेंच ने कहा:
“जब वादपत्र में जानकारी की तिथि विशेष रूप से उल्लिखित हो और वही कारण-कारण (cause of action) का आधार हो, तब सीमाबद्धता का प्रश्न केवल साक्ष्य के माध्यम से तय हो सकता है और इसे प्रारंभिक स्तर पर ऑर्डर VII नियम 11 CPC के अंतर्गत नहीं खारिज किया जा सकता।”
कोर्ट ने Daliben Valjibhai, Chhotanben v. Kiritbhai, और Shakti Bhog Foods Ltd. जैसे मामलों में दिए गए निर्णयों का उल्लेख करते हुए स्पष्ट किया कि वादपत्र के आरोपों को उस स्तर पर सही मानते हुए आगे की कार्यवाही की जानी चाहिए।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
“जब सीमाबद्धता और पावर ऑफ अटॉर्नी की वैधता जैसे गंभीर तथ्यात्मक विवाद मौजूद हों, तो वादपत्र को प्रारंभिक स्तर पर खारिज करना विधिसम्मत नहीं है।”
अतः, मद्रास हाईकोर्ट द्वारा 3 सितंबर 2020 को पारित आदेश को रद्द कर दिया गया और ट्रायल कोर्ट द्वारा 4 अक्टूबर 2017 को पारित आदेश को पुनर्स्थापित किया गया, जिसमें वादपत्र को खारिज नहीं किया गया था।
मामले को ट्रायल के लिए बहाल कर दिया गया है, और निचली अदालत को निर्देश दिया गया है कि वह हाईकोर्ट की टिप्पणियों से प्रभावित हुए बिना स्वतंत्र रूप से मामले का निपटारा करे। कोर्ट ने किसी पक्ष को लागत नहीं दी।