सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया है कि “कोर्ट गवाह” (Court Witness) की जिरह केवल न्यायालय की अनुमति से की जा सकती है और इस प्रकार के गवाह के पुलिस के समक्ष दिए गए पूर्व बयानों (धारा 161 दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 – CrPC के तहत) का उपयोग उसे खंडित करने के लिए नहीं किया जा सकता।
यह फैसला न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्र की पीठ ने के. पी. तमिलमरन बनाम राज्य मामले में सुनाया, जो मद्रास उच्च न्यायालय के 8 जून 2022 के निर्णय को चुनौती देने वाली अपीलों से संबंधित था।
प्रकरण की पृष्ठभूमि
यह मामला जुलाई 2003 में तमिलनाडु के कुड्डालोर जिले में एक अंतरजातीय युवा जोड़े, मुरुगेशन (दलित) और कन्नगी (वनियार समुदाय) की निर्मम हत्या से जुड़ा है। दोनों ने परिवारों की इच्छा के विरुद्ध विवाह किया था। इसके बाद उन्हें जबरन गांव वापस लाकर प्रताड़ित किया गया और ज़हर देकर मार दिया गया।

इस जघन्य कृत्य में पंद्रह व्यक्तियों, जिनमें दो पुलिस अधिकारी भी शामिल थे, के विरुद्ध अभियोग लगाए गए। ट्रायल कोर्ट ने तेरह आरोपितों को दोषी ठहराया, जबकि दो को बरी कर दिया। उच्च न्यायालय ने कुछ दोषसिद्धियों और सजाओं में संशोधन करते हुए, विशेष रूप से उप-निरीक्षक के. पी. तमिलमरन (आरोपी संख्या-14) की उम्रकैद को घटाकर दो वर्ष का कठोर कारावास कर दिया। दोषसिद्ध अभियुक्तों ने इसके विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी।
मुख्य कानूनी प्रश्न
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष एक महत्वपूर्ण मुद्दा यह था कि मृतक मुरुगेशन की सौतेली मां, गवाह संख्या-49 (चिन्नपिल्लै), जिन्हें ट्रायल के बीच में धारा 311 CrPC के तहत बुलाया गया था, को अभियोजन पक्ष के गवाह के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए था या कोर्ट गवाह के रूप में, और उनके पूर्व पुलिस बयानों के आधार पर जिरह व खंडन की प्रक्रिया कैसे संचालित होनी थी।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियाँ
न्यायालय ने धारा 311 CrPC के तहत आपराधिक न्यायालयों को प्रदत्त व्यापक शक्तियों का विश्लेषण किया, जो उन्हें किसी भी चरण में किसी भी गवाह को समन करने और उसका परीक्षण करने की अनुमति देती है, चाहे स्वयं (सुओ मोटू) या पक्षकारों के आवेदन पर। निर्णय में कहा गया कि यदि न्यायालय को उचित निर्णय हेतु किसी व्यक्ति के साक्ष्य की आवश्यकता महसूस हो, तो उसे अवश्य बुलाना चाहिए।
न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया ने कहा:
“ऐसे मामलों में जहां न अभियोजन और न ही बचाव पक्ष किसी व्यक्ति को गवाह बनाना चाहते हैं, फिर भी यदि न्यायालय को लगता है कि उस व्यक्ति का साक्ष्य आवश्यक है, तो वह धारा 311 CrPC और साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग कर उसे कोर्ट गवाह के रूप में बुला सकता है।”
महत्वपूर्ण रूप से, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि:
- पक्षकार कोर्ट गवाह की जिरह कर सकते हैं, परंतु इसके लिए न्यायालय की अनुमति आवश्यक है।
- कोर्ट गवाह को पुलिस के समक्ष धारा 161 CrPC के अंतर्गत दिए गए पूर्व बयानों के आधार पर खंडित नहीं किया जा सकता।
न्यायालय ने व्याख्या की:
“धारा 162(1) CrPC के प्रावधान से स्पष्ट है कि केवल अभियोजन पक्ष के गवाहों को उनके धारा 161 CrPC के अंतर्गत दिए गए बयानों के आधार पर खंडित किया जा सकता है। कोर्ट गवाहों के मामले में ऐसा कोई अधिकार नहीं है।”
न्यायालय ने महाबीर मंडल बनाम बिहार राज्य [(1972) 1 SCC 748] तथा दीपकभाई जगदीशचंद्र पटेल बनाम गुजरात राज्य [(2019) 16 SCC 547] जैसे पूर्व निर्णयों का हवाला दिया, जिनमें यह सिद्धांत स्थापित किया गया है कि पुलिस बयानों का उपयोग केवल अभियोजन पक्ष के गवाहों के खंडन हेतु किया जा सकता है, न कि कोर्ट गवाहों के खिलाफ।
इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने यह भी रेखांकित किया:
“साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 के तहत न्यायालय को प्राप्त विशेष शक्तियाँ धारा 162 CrPC के प्रावधानों द्वारा सीमित नहीं की गई हैं। न्यायालय सच्चाई जानने के लिए किसी भी गवाह से किसी भी प्रकार का प्रश्न पूछ सकता है, भले ही वह प्रश्न गवाह के पुलिस के समक्ष दिए गए पूर्व बयान से विरोधाभासी हो।”
रघुनंदन बनाम उत्तर प्रदेश राज्य [(1974) 4 SCC 186] का हवाला देते हुए भी न्यायालय ने इस सिद्धांत को पुष्ट किया कि साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 के तहत न्यायाधीश को सत्य जानने के लिए किसी भी गवाह से किसी भी प्रकार के प्रश्न पूछने का पूर्ण विवेकाधिकार प्राप्त है।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट द्वारा गवाह संख्या-49 (चिन्नपिल्लै) को अभियोजन पक्ष के गवाह के रूप में परीक्षण किए जाने के दृष्टिकोण को उचित ठहराया और यह तर्क खारिज कर दिया कि यदि उन्हें कोर्ट गवाह माना जाता तो जिरह व खंडन की प्रक्रिया में कोई अंतर होता।
न्यायालय ने संक्षेप में यह कानून स्थापित किया:
- कोर्ट गवाह की जिरह केवल न्यायालय की अनुमति से की जा सकती है।
- कोर्ट गवाह के धारा 161 CrPC के तहत दिए गए पूर्व पुलिस बयानों का उपयोग उसके खंडन के लिए नहीं किया जा सकता।
- साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 के तहत न्यायाधीश को सत्य की खोज हेतु व्यापक विवेकाधिकार प्राप्त है और न्यायिक प्रक्रिया की पवित्रता को बनाए रखने का दायित्व है।
इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट ने आपराधिक प्रक्रिया के एक महत्वपूर्ण पहलू को स्पष्ट करते हुए, कोर्ट गवाहों की विशेष स्थिति और उनके संबंध में लागू प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों को पुनः स्थापित किया।