सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2011 के एक हत्या मामले में दोषसिद्ध शंभू चौधरी को बरी करते हुए कहा कि ट्रायल कोर्ट द्वारा आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 313 का पालन नहीं किया गया, जिससे अभियुक्त को गंभीर क्षति हुई। न्यायालय ने कहा कि अभियुक्त से प्रत्येक प्रतिकूल साक्ष्य के संबंध में विधिवत पूछताछ नहीं की गई, जो न्याय की दृष्टि से गंभीर त्रुटि है।
यह निर्णय न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्ज्वल भूइयां की पीठ ने क्रिमिनल अपील संख्या 2154/2025 (विशेष अनुमति याचिका (आपराधिक) संख्या 8688/2023) में सुनाया।
मामले की पृष्ठभूमि
शंभू चौधरी पर 8 मई 2011 को बिहार के बेगूसराय ज़िले में रामाश्रय चौधरी की गोली मारकर हत्या करने के आरोप में सात अन्य व्यक्तियों के साथ मुकदमा चला। अभियुक्तों पर भारतीय दंड संहिता की धारा 302/149, 120-बी तथा आयुध अधिनियम, 1959 की धारा 27 के तहत आरोप लगाए गए थे।

जहां ट्रायल कोर्ट ने सभी अभियुक्तों को दोषी ठहराया था, वहीं पटना उच्च न्यायालय ने 23 दिसंबर 2022 को दिए गए अपने निर्णय में सह-अभियुक्तों की अपील स्वीकार कर ली। हालांकि, शंभू चौधरी की सजा को आईपीसी की धारा 302/149 से संशोधित कर केवल धारा 302 में दोषसिद्ध किया गया। इस निर्णय के विरुद्ध शंभू चौधरी ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
अपीलकर्ता के तर्क
अपीलकर्ता की ओर से प्रमुख रूप से यह तर्क दिया गया कि अभियुक्त का धारा 313(1) CrPC के तहत कथन ठीक प्रकार से दर्ज नहीं किया गया। प्रस्तुत बिंदु थे:
- प्राथमिकी को मजिस्ट्रेट के पास भेजने में 8 दिन की अनुचित देरी हुई।
- सभी चश्मदीद गवाह (PW1 से PW4) पक्षपाती थे।
- जांच अधिकारी की गवाही संदेह उत्पन्न करती है।
- सबसे महत्वपूर्ण यह कि अभियोजन पक्ष के गवाहों की प्रतिकूल गवाही अभियुक्त को धारा 313 की प्रक्रिया में नहीं बताई गई।
सुप्रीम कोर्ट की धारा 313 CrPC पर टिप्पणी
पीठ ने विशेष रूप से धारा 313 CrPC के उल्लंघन पर बल दिया। राज कुमार उर्फ सुमन बनाम राज्य (NCT दिल्ली), (2023) 17 SCC 95 का हवाला देते हुए न्यायालय ने दोहराया कि ट्रायल कोर्ट का कर्तव्य है कि वह साक्ष्य में आए प्रत्येक प्रतिकूल तथ्य को अभियुक्त के समक्ष विशिष्ट, पृथक और स्पष्ट रूप में रखे।
न्यायालय ने कहा:
“धारा 313 CrPC के अंतर्गत, यह न्यायालय का कर्तव्य है कि वह अभियुक्त को उसके विरुद्ध साक्ष्य में आई परिस्थितियों को स्पष्ट रूप से बताए। ‘अभियुक्त के विरुद्ध साक्ष्य में आई परिस्थितियों’ और ‘अभियोजन के संक्षिप्त मामले’ में अंतर है। इस मामले में जो अभियुक्त को बताया गया वह केवल अभियोजन का सार था। यह न्यायालय का कर्तव्य था कि अभियुक्त को यह स्पष्ट किया जाए कि प्रत्येक अभियोजन गवाह, विशेषतः चश्मदीद गवाह, ने उसके विरुद्ध क्या गवाही दी है।”
पक्षपात और विलंब
उच्च न्यायालय द्वारा यह कहे जाने पर कि अभियुक्त ने कोई पूर्वग्रह (prejudice) सिद्ध नहीं किया, सुप्रीम कोर्ट ने असहमति जताई:
“हम यह स्वीकार नहीं कर सकते कि अपीलकर्ता के वकील पक्षपात को सिद्ध नहीं कर सके। वस्तुतः, इस मामले में पक्षपात इतना स्पष्ट है कि किसी विशेष तर्क की आवश्यकता नहीं।”
पीठ ने यह भी ध्यान में लिया कि घटना को 14 वर्ष बीत चुके हैं और अभियुक्त पहले ही 14 वर्ष से अधिक कारावास भुगत चुका है। ऐसे में मामले को दोबारा धारा 313 की प्रक्रिया के लिए लौटाना न्यायसंगत नहीं होगा।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट द्वारा की गई धारा 313 CrPC के तहत की गई पूछताछ को अमान्य मानते हुए कहा:
“धारा 313(1) CrPC के अंतर्गत जो पूछताछ की गई, वह विधिसम्मत पूछताछ नहीं है… इसलिए इसमें कोई संकोच नहीं है कि इससे अभियुक्त को गंभीर क्षति हुई है।”
तदनुसार, पटना हाईकोर्ट द्वारा क्रिमिनल अपील (DB) नंबर 494/2014 में 23 दिसंबर 2022 को दिया गया निर्णय रद्द कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने शंभू चौधरी को सभी आरोपों से बरी कर दिया और अन्य किसी मामले में आवश्यक न होने पर उनकी तत्काल रिहाई का आदेश दिया।
मामला: शंभू चौधरी बनाम बिहार राज्य, क्रिमिनल अपील नंबर 2154/2025