सुप्रीम कोर्ट ने शाहजहां बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य, आपराधिक अपील संख्या 2112/2025 में, न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने यह दोहराया कि ‘काजी की अदालत’, ‘दारुल कज़ा’, और ‘शरिया कोर्ट’ जैसे संस्थानों की भारतीय कानून के तहत कोई वैधानिक मान्यता नहीं है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि इन निकायों द्वारा जारी कोई भी घोषणा या निर्णय बाध्यकारी नहीं है और इन्हें किसी भी प्रकार के दंडात्मक उपायों के माध्यम से लागू नहीं किया जा सकता।
मामले की पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता पत्नी शाहजहां का विवाह 24 सितंबर 2002 को इस्लामी रीति-रिवाजों के अनुसार प्रतिवादी संख्या 2 गफ्फार खान के साथ हुआ था। दोनों पक्षों के पूर्व में भी विवाह हो चुके थे। इस वैवाहिक संबंध से दो संतानें — आतिका और मुजम्मिल — उत्पन्न हुईं।
वर्ष 2005 में, प्रतिवादी पति ने भोपाल स्थित ‘काजी की अदालत’ में तलाक वाद संख्या 325/2005 दायर किया था, जिसे 22 नवंबर 2005 को दोनों पक्षों के बीच समझौता होने के बाद खारिज कर दिया गया। हालांकि, 2008 में प्रतिवादी ने पुनः भोपाल के ‘दारुल कज़ा काजियात’ में तलाक की याचिका दायर की। इसके पश्चात, अपीलकर्ता ने अपनी तथा अपने बच्चों के भरण-पोषण के लिए दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 125 के तहत आवेदन दायर किया।
झांसी के पारिवारिक न्यायालय ने 23 अप्रैल 2010 के आदेश द्वारा बच्चों को भरण-पोषण प्रदान किया, लेकिन अपीलकर्ता पत्नी को भरण-पोषण देने से इंकार कर दिया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी अपीलकर्ता की चुनौती को खारिज कर दिया।
पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ता ने यह दलील दी कि उसे दहेज की मांगों के चलते क्रूरता का शिकार बनाकर matrimonial home से निकाल दिया गया और उसकी कोई स्वतंत्र आय का स्रोत नहीं है। साथ ही यह भी तर्क दिया गया कि प्रतिवादी द्वारा बार-बार धार्मिक संस्थाओं, जैसे ‘शरिया कोर्ट’, के समक्ष वाद दाखिल किए गए।
राज्य सरकार ने अपील का विरोध करते हुए कहा कि बच्चों तक ही भरण-पोषण को सीमित करना उचित था तथा अपीलकर्ता बिना उचित कारण के अलग रह रही थी। प्रतिवादी पति, नोटिस सेवा के बावजूद, न्यायालय में उपस्थित नहीं हुआ।
न्यायालय की विश्लेषणात्मक टिप्पणियाँ
मामले की पृष्ठभूमि पर विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ‘काजी की अदालत’, ‘दारुल कज़ा’, और ‘शरिया कोर्ट’ जैसे निकायों में चल रही कार्यवाहियों के विषय पर गौर किया। ‘विश्व लोचन मदान बनाम भारत संघ’ [(2014) 7 SCC 707] के निर्णय का संदर्भ देते हुए, न्यायालय ने कहा:
“‘काजी की अदालत’, ‘दारुल कज़ा काजियात’, ‘शरिया कोर्ट’ आदि, चाहे जिस भी नाम से इन्हें पुकारा जाए, भारतीय कानून में इनकी कोई मान्यता नहीं है। जैसा कि विश्व लोचन मदान (उपर्युक्त) में उल्लेखित है, इन निकायों द्वारा दी गई कोई भी घोषणा/निर्णय किसी पर बाध्यकारी नहीं है और इन्हें किसी दंडात्मक उपाय से लागू नहीं किया जा सकता।”
न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि:
“ऐसे निकायों से प्राप्त कोई ‘फतवा’ या निर्णय किसी भी विधिक मान्यता प्राप्त न्यायिक प्रणाली से नहीं आता है, और इस कारण उसे किसी भी कानूनी प्रक्रिया के माध्यम से लागू नहीं किया जा सकता। ये अधिकतम एक अनौपचारिक व्यवस्था हो सकती हैं और केवल तभी प्रभावी हो सकती हैं जब संबंधित पक्ष स्वेच्छा से उसे स्वीकार करें, बशर्ते वह किसी अन्य कानून के विरुद्ध न हो।”
न्यायालय ने यह भी जोर दिया कि यदि ऐसे निर्णयों को लागू करने के लिए कोई भी बल प्रयोग किया जाता है, तो वह अवैध होगा और कानून के अनुसार उस पर कार्रवाई की जानी चाहिए।
अंतिम निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने पारिवारिक न्यायालय और उच्च न्यायालय के आदेशों को निरस्त करते हुए अपीलकर्ता पत्नी को उसकी भरण-पोषण याचिका की तारीख से ₹4,000 प्रति माह की दर से भरण-पोषण देने का आदेश दिया। साथ ही, बच्चों के भरण-पोषण का भुगतान भी आवेदन की तारीख से करने का निर्देश दिया गया। बेटी के लिए भरण-पोषण केवल उसके वयस्क होने तक देय रहेगा।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी पुनः दोहराया कि धार्मिक निर्णय निकायों की भारतीय कानून के अंतर्गत कोई बाध्यकारी शक्ति नहीं है और उनके निर्णय संविधान और भारतीय कानूनों के तहत गठित न्यायालयों द्वारा किए गए न्यायिक निर्णयों की जगह नहीं ले सकते।
अपील स्वीकार कर ली गई, और पक्षकारों पर कोई भी लागत नहीं डाली गई।