गुजरात हाईकोर्ट ने एक महिला के खिलाफ दर्ज उस एफआईआर को रद्द कर दिया है, जिस पर शिकायतकर्ता के पति के साथ विवाहेतर संबंध रखने का आरोप लगाया गया था। अदालत ने स्पष्ट किया कि ‘प्रेमिका’ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498ए के तहत अभियोजन के लिए ‘रिश्तेदार’ की परिभाषा में नहीं आती है।
यह आदेश जस्टिस जे.सी. दोशी ने फौजदारी प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 के तहत दायर क्रिमिनल मिस. एप्लीकेशन संख्या 14331/2019 में पारित किया। यह याचिका राजकोट सिटी के महिला पुलिस थाने में दर्ज एफआईआर क्रमांक II-सी.आर. संख्या 126/2010 (धारा 498ए, 323, 504, 506(2) और 114 आईपीसी के तहत) को रद्द करने के लिए दाखिल की गई थी।
मामले की पृष्ठभूमि
शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया था कि उसके पति का याचिकाकर्ता (आवेदिका) के साथ संबंध था। उसने दावा किया कि आवेदिका उनके घर आती थी, उसे गाली देती थी और मानसिक व शारीरिक क्रूरता पहुंचाती थी। एफआईआर में यह भी उल्लेख किया गया था कि पति ने शिकायतकर्ता को धमकी दी थी कि “मेरा एक महिला से संबंध है… इसलिए तुम मुझसे तलाक ले लो, नहीं तो मैं तुम्हें जान से मार दूंगा।” आवेदिका पर सार्वजनिक स्थलों पर भी शिकायतकर्ता को परेशान करने का आरोप था।
पक्षकारों की दलीलें
आवेदिका की ओर से अधिवक्ता श्री ज़लक बी. पिपलिया ने तर्क दिया कि शिकायत में केवल आवेदिका के पति के साथ संबंध होने का आरोप है, इसके अतिरिक्त कोई ठोस आरोप नहीं लगाया गया। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों – यू. सुवेथा बनाम स्टेट बाय इंस्पेक्टर ऑफ पुलिस [2009 (6) एससीसी 757] और डेचम्मा आई.एम. @ डेचम्मा कौशिक बनाम कर्नाटक राज्य [2024(0) आईएनएससी 972] का हवाला दिया और कहा कि धारा 498ए के तहत ‘रिश्तेदार’ में प्रेमिका को शामिल नहीं किया जा सकता। ‘रिश्तेदार’ का दर्जा रक्त, विवाह या गोद लिए जाने के माध्यम से ही उत्पन्न होता है।
वहीं, अतिरिक्त लोक अभियोजक श्री सोहम जोशी ने याचिका का विरोध करते हुए कहा कि एफआईआर में धारा 323, 504, 506(2) और 114 आईपीसी के तहत भी आरोप लगाए गए हैं, जिनके आवश्यक तत्व प्रथम दृष्टया उपलब्ध हैं।
अदालत का विश्लेषण और निर्णय
जस्टिस जे.सी. दोशी ने पाया कि मुख्य आरोप आवेदिका को पति की प्रेमिका बताए जाने का था और उसे कोई पारिवारिक या वैधानिक दर्जा नहीं दिया गया था। अदालत ने डेचम्मा आई.एम. कौशिक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दोहराए गए सिद्धांत का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था:
“किसी भी दृष्टिकोण से प्रेमिका को ‘रिश्तेदार’ नहीं कहा जा सकता। ‘रिश्तेदार’ शब्द अपने भीतर एक वैधानिक स्थिति समाहित करता है, जो या तो रक्त, विवाह या दत्तक ग्रहण से प्राप्त होती है।”
इसके अलावा, अदालत ने यह भी पाया कि एफआईआर में धारा 323, 504 और 506(2) आईपीसी के अपराधों के आवश्यक तत्वों का भी पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में समर्थन नहीं था।
जस्टिस दोशी ने टिप्पणी की कि इन परिस्थितियों में आवेदिका को मुकदमेबाजी की प्रक्रिया में झोंकना उचित नहीं होगा।
अतः हाईकोर्ट ने आंशिक रूप से याचिका को स्वीकार करते हुए आवेदिका के संबंध में एफआईआर क्रमांक II-सी.आर. संख्या 126/2010 और उसके तहत की गई सभी कार्यवाहियों को रद्द कर दिया।