धारा 482 सीआरपीसी के तहत हाई कोर्ट की शक्तियों का प्रयोग संयमपूर्वक होना चाहिए; आर्थिक अपराधों का दर्जा अलग: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट की पीठ, जिसमें जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी और जस्टिस प्रसन्ना बी. वराले शामिल थे, ने दिनेश शर्मा द्वारा दायर अपील को स्वीकार कर लिया, जिसमें राजस्थान हाई कोर्ट द्वारा ईएमजीईई केबल्स एंड कम्युनिकेशन लिमिटेड और इसके निदेशकों के खिलाफ एफआईआर को रद्द करने के आदेश को चुनौती दी गई थी। कोर्ट ने जोर देकर कहा कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 482 के तहत हाई कोर्ट को प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग अत्यंत संयम से किया जाना चाहिए और यह दोहराया कि आर्थिक अपराधों का प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर गहरा पड़ता है, इसलिए इन्हें अलग दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए।

पृष्ठभूमि:

अपीलकर्ता दिनेश शर्मा, एम/एस बीएलएस पॉलिमर्स लिमिटेड के अधिकृत प्रतिनिधि थे, जो प्लास्टिक कंपाउंड के निर्माण और आपूर्ति में संलग्न थी। ईएमजीईई केबल्स एंड कम्युनिकेशन लिमिटेड (प्रतिवादी संख्या 1) तांबे के मिश्र धातु, तार और कंडक्टर बनाने का कार्य करती थी। वर्ष 2012 से 2017 तक दोनों पक्षों के बीच व्यापारिक लेनदेन हुए, जिसमें अपीलकर्ता ने उधार पर माल की आपूर्ति की।

आरोप था कि अप्रैल 2017 से जुलाई 2018 के बीच ₹2,20,82,000 मूल्य का माल आपूर्ति करने के बावजूद भुगतान नहीं किया गया। प्रतिवादी द्वारा जारी कई चेक बाउंस हो गए। आर्थिक कठिनाइयों का सामना करते हुए, अपीलकर्ता ने पुलिस थाना चोमू, जयपुर (पश्चिम) में भारतीय दंड संहिता की धारा 420, 406 और 120बी के तहत एफआईआर संख्या 218/2018 दर्ज करवाई।

बाद में, डेना बैंक ने भी प्रतिवादी कंपनी के खिलाफ फंड के गबन और हेराफेरी के आरोप में कार्यवाही शुरू की। अपीलकर्ता ने नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट और इनसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड के तहत भी उपाय किए।

पक्षकारों के तर्क:

अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि हाई कोर्ट ने एफआईआर को प्रारंभिक चरण में ही रद्द कर गलती की, जबकि कंपनी के निदेशकों द्वारा धोखाधड़ी और बेइमानी का prima facie (प्रथम दृष्टया) प्रमाण उपलब्ध था, जिसमें शेल कंपनियों के माध्यम से फंड सर्कुलेशन के आरोप भी शामिल थे। कहा गया कि आर्थिक अपराधों से सार्वजनिक विश्वास प्रभावित होता है, इसलिए इन्हें हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए।

राजस्थान राज्य के अतिरिक्त महाधिवक्ता ने अपीलकर्ता का समर्थन करते हुए तर्क दिया कि आपराधिक और सिविल उपचार भिन्न हैं और सह-अस्तित्व रखते हैं।

प्रतिवादी संख्या 3 ने तर्क दिया कि लेनदेन पूरी तरह व्यापारिक थे और इनका आपराधिक रंग नहीं दिया जा सकता। साथ ही कहा गया कि उसने 2016 में कंपनी से इस्तीफा दे दिया था और उसके बाद उसकी कोई संलिप्तता नहीं रही।

सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण:

सुप्रीम कोर्ट ने State of Haryana v. Bhajan Lal (1992 SCC (Cri) 426) के ऐतिहासिक निर्णय का संदर्भ देते हुए दोहराया कि धारा 482 सीआरपीसी के तहत निहित शक्तियों का प्रयोग अत्यंत संयम से और केवल असाधारण मामलों में किया जाना चाहिए।

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कोर्ट ने अवलोकन किया:

“यद्यपि हाई कोर्ट को सीआरपीसी द्वारा धारा 482 के अंतर्गत निहित क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने के लिए असीमित शक्तियाँ प्रदान की गई हैं, फिर भी इनका उपयोग अत्यंत संयमपूर्वक और केवल अपवादस्वरूप परिस्थितियों में ही किया जाना अपेक्षित है। प्रत्येक मामले का मूल्यांकन उसके स्वयं के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर किया जाना चाहिए।”

हाई कोर्ट के दृष्टिकोण की आलोचना करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वर्षों से व्यापारिक लेन-देन का अस्तित्व अपने आप में धोखाधड़ी की मंशा को खारिज नहीं कर सकता, खासकर जब आरोपों में शेल कंपनियों के माध्यम से धन के सर्कुलेशन और मनी लॉन्ड्रिंग की कार्यवाहियाँ शामिल हों।

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा:

“कंपनी द्वारा शेल कंपनियाँ बनाना और उनके माध्यम से वित्तीय लेनदेन करना ही धोखाधड़ी की मंशा का संकेत है।”

इसके अतिरिक्त कोर्ट ने आर्थिक अपराधों की प्रकृति पर जोर देते हुए कहा:

“आर्थिक अपराध अपनी प्रकृति से अन्य अपराधों से भिन्न होते हैं और उनके व्यापक प्रभाव होते हैं। ये एक अलग वर्ग बनाते हैं। आर्थिक अपराध पूरे देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते हैं और देश की वित्तीय सेहत के लिए गंभीर खतरा पैदा करते हैं।”

Parbatbhai Ahir v. State of Gujarat (2017 (9) SCC 641) के निर्णय का उल्लेख करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आर्थिक अपराधों से संबंधित कार्यवाहियों को रद्द करने से पहले कोर्ट को अत्यधिक सावधानी बरतनी चाहिए।

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साथ ही, कोर्ट ने पाया कि प्रतिवादी संख्या 3 द्वारा इस्तीफा देने का दावा भ्रामक था क्योंकि दस्तावेज़ों से स्पष्ट था कि उसने इस्तीफा देने के बाद भी तकनीकी निदेशक के रूप में कार्य किया और क्रय आदेशों पर हस्ताक्षर किए।

निर्णय:

सुप्रीम कोर्ट ने अपील को स्वीकार करते हुए हाई कोर्ट के निर्णय को रद्द कर दिया और एफआईआर संख्या 218/2018 तथा उससे संबंधित कार्यवाहियों को बहाल कर दिया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि उसके द्वारा व्यक्त की गई टिप्पणियाँ prima facie (प्रथम दृष्टया) हैं और ट्रायल कोर्ट स्वतंत्र रूप से और कानून के अनुसार कार्यवाही करेगा।

कोर्ट ने यह भी कहा कि आर्थिक धोखाधड़ी जैसे मामलों में प्रारंभिक चरण में एफआईआर को रद्द करने से हाई कोर्ट को बचना चाहिए था और पूरी जांच आवश्यक थी।

लंबित सभी आवेदनों का भी निस्तारण कर दिया गया।

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