दिल्ली हाईकोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि किसी नाबालिग के साथ यौन शोषण की घटना को मानसिक आघात (ट्रॉमा) या सामाजिक दमन के कारण देर से रिपोर्ट करना, ‘पॉक्सो एक्ट’ (POCSO Act) के तहत अपराध नहीं माना जा सकता। यह फैसला उस महिला के पक्ष में आया है, जिसे अपनी 10 वर्षीय बेटी के साथ उसके पिता और चचेरे भाइयों द्वारा किए गए यौन उत्पीड़न की सूचना समय पर न देने के आरोप में मुकदमे का सामना करना पड़ रहा था।
न्यायमूर्ति स्वर्ण कांता शर्मा ने इस मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि पीड़ित बच्ची की मां स्वयं भी घरेलू हिंसा और भावनात्मक शोषण का शिकार रही हैं, और उन्होंने बेहद निजी जोखिम उठाकर इस अपराध की सूचना दी। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि “पॉक्सो एक्ट की धारा 21 का उद्देश्य बच्चों के साथ यौन अपराधों को छुपाने से रोकना और समय रहते कार्रवाई सुनिश्चित करना है, न कि उन लोगों को दंडित करना जिन्होंने निजी कठिन परिस्थितियों के बावजूद अंततः अपराध की सूचना दी।”
हाईकोर्ट ने दिसंबर 2023 में आए ट्रायल कोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें महिला पर पॉक्सो की धारा 21 के तहत मामला दर्ज किया गया था। अदालत ने निचली अदालत के रुख की आलोचना करते हुए कहा कि उसने उस महिला की मानसिक और सामाजिक स्थिति को नजरअंदाज कर दिया, जो खुद ही घरेलू हिंसा की शिकार थी।
मामले के तथ्यों से सामने आया कि बच्ची का यौन शोषण उसके नजदीकी रिश्तेदारों द्वारा किया गया था और मां को भी शारीरिक हिंसा का सामना करना पड़ा था। कोर्ट ने कहा कि देर से रिपोर्ट करने और रिपोर्ट नहीं करने में फर्क किया जाना चाहिए, क्योंकि देर से रिपोर्ट करना कई बार मानसिक प्रतिक्रिया होती है, न कि अभियुक्तों को बचाने का प्रयास।
कोर्ट ने कहा, “ऐसे मामलों में न्याय प्रणाली को उन लोगों की वास्तविक परिस्थितियों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए, विशेष रूप से जब अपराध परिवार के भीतर हो और सामाजिक कलंक की आशंका जुड़ी हो।”
महिला के खिलाफ आरोप खारिज करते हुए हाईकोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि कानून को इस तरह की परिस्थितियों में सहानुभूति और व्यावहारिक दृष्टिकोण के साथ काम करना चाहिए।