उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने मंगलवार को एक बार फिर संविधान की सर्वोच्चता और न्यायपालिका की भूमिका को लेकर बहस छेड़ दी। उन्होंने कहा कि “भारतीय संविधान के तहत संसद ही सर्वोच्च संस्था है” और यह भी जोड़ा कि “चुने हुए जनप्रतिनिधियों से ऊपर कोई प्राधिकरण नहीं हो सकता”।
दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में बोलते हुए, राज्यसभा के सभापति के रूप में भी कार्यरत धनखड़ ने कहा कि “चुने हुए जनप्रतिनिधि ही यह तय करेंगे कि संविधान क्या होगा।” उन्होंने संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद 142 की न्यायिक व्याख्या पर भी सवाल उठाए।
धनखड़ ने कहा,

“एक मामले में सुप्रीम कोर्ट कहता है कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है… और दूसरे में कहता है कि यह हिस्सा है। लेकिन कोई भ्रम नहीं होना चाहिए—चुने हुए जनप्रतिनिधि ही तय करेंगे कि संविधान क्या होगा।”
यह बयान 1967 के गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य और 1973 के केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामलों में आए परस्पर विरोधी निर्णयों की ओर इशारा करता है।
आपातकाल और सुप्रीम कोर्ट की भूमिका पर टिप्पणी
धनखड़ ने 1975 में लगाए गए आपातकाल को “लोकतंत्र के इतिहास का सबसे काला अध्याय” बताते हुए, सुप्रीम कोर्ट द्वारा उसकी वैधता को मंजूरी दिए जाने की भी आलोचना की।
उन्होंने कहा,
“मैं इसे ‘सबसे काला’ कहता हूं क्योंकि देश की सर्वोच्च अदालत ने नौ उच्च न्यायालयों के उस निर्णय को अनदेखा कर दिया जिसमें कहा गया था कि लोकतंत्र में मौलिक अधिकार कभी भी स्थगित नहीं किए जा सकते।”
उन्होंने आगे कहा,
“सुप्रीम कोर्ट ने खुद को मौलिक अधिकारों का अंतिम निर्णायक घोषित किया।”
अनुच्छेद 142: “न्यायपालिका के हाथों में परमाणु मिसाइल”
उपराष्ट्रपति ने अनुच्छेद 142 को लेकर अपनी पहले से चली आ रही आलोचनात्मक टिप्पणी दोहराई। इस अनुच्छेद के तहत सुप्रीम कोर्ट को “पूर्ण न्याय” के लिए आवश्यक आदेश देने की शक्ति प्राप्त है।
धनखड़ ने इसे “लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ न्यायपालिका के पास 24×7 उपलब्ध परमाणु मिसाइल” करार दिया।
यह बयान उस समय आया है जब हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने में देरी को लेकर राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए समय सीमा तय करने का निर्देश दिया।
राजनीतिक प्रतिक्रियाएं और विरोध
धनखड़ के बयानों पर कानूनी और राजनीतिक हलकों से तीखी प्रतिक्रियाएं आईं।
वरिष्ठ कांग्रेस नेता और वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने इसे “अनावश्यक” बताते हुए कहा कि “संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को इस प्रकार की टिप्पणियों से बचना चाहिए।”
उन्होंने कहा,
“राष्ट्रपति ऐसी टिप्पणियां नहीं करते, वही मानदंड उपराष्ट्रपति पर भी लागू होना चाहिए।”
उन्होंने यह भी जोड़ा कि अनुच्छेद 142 का उपयोग अक्सर असाधारण स्थितियों में न्याय को बरकरार रखने के लिए किया गया है।
धनखड़ की टिप्पणी ऐसे समय में आई है जब सत्तारूढ़ दल के कई सदस्य, विशेष रूप से भाजपा सांसद निशिकांत दुबे, सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों पर हमलावर रहे हैं। दुबे ने कहा था:
“अगर हर बात के लिए सुप्रीम कोर्ट ही जाना है, तो संसद और विधानसभाएं बंद कर दीजिए।”
भाजपा ने दुबे की टिप्पणी को “व्यक्तिगत राय” बताते हुए खुद को इससे अलग कर लिया है। हालांकि, भारत के अटॉर्नी जनरल से सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के लिए दुबे के खिलाफ कार्रवाई की अनुमति मांगी गई है, खासकर मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना पर देश में “अराजकता फैलाने” का आरोप लगाने वाले बयान को लेकर।
न्यायिक प्रतिक्रियाएं
न्यायपालिका की ओर से इन टिप्पणियों पर संयमित प्रतिक्रिया दी गई।
जस्टिस सूर्यकांत ने एक अवमानना याचिका की सुनवाई के दौरान कहा:
“हम संस्था पर होने वाले हमलों को लेकर चिंतित नहीं हैं—संस्था हर दिन हमले झेलती है।”
आगामी मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बी.आर. गवई ने पश्चिम बंगाल में हिंसा से संबंधित एक याचिका की सुनवाई के दौरान व्यंग्य में कहा:
“आप चाहते हैं कि हम राष्ट्रपति को भी रिट जारी करें? वैसे भी हम पर पहले ही कार्यपालिका में दखल देने का आरोप लग रहा है…”
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस अजय रस्तोगी ने भी टिप्पणी की कि यदि न्यायिक व्याख्याओं से असहमति हो, तो संसद के पास संविधान में संशोधन करने की पूर्ण शक्ति है।
उन्होंने कहा,
“अगर मतभेद है, तो संसद संविधान में संशोधन कर सकती है।”