सहमति डिक्री को नई दीवानी वाद के ज़रिये चुनौती नहीं दी जा सकती: सुप्रीम कोर्ट ने अपील खारिज की, Order 23 Rule 3A CPC का हवाला

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया है कि सहमति डिक्री (Consent Decree) को एक अलग दीवानी मुकदमे के माध्यम से चुनौती नहीं दी जा सकती। यह निर्णय न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति एहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने Manjunath Tirakappa Malagi and Anr. vs. Gurusiddappa Tirakappa Malagi (Dead through LRs) मामले में सुनाया।

मामले की पृष्ठभूमि

यह अपील एक दीवानी विवाद से संबंधित है, जिसकी शुरुआत वर्ष 2003 में हुई थी। अपीलकर्ताओं ने 18.01.2000 को पारित की गई सहमति डिक्री को शून्य और अमान्य घोषित करने की मांग की थी। यह डिक्री 1999 में दायर वाद (O.S. No. 58/1999) के अंतर्गत 7 एकड़ ज़मीन के विभाजन को लेकर थी, जिसमें अपीलकर्ताओं के पिता, दादा और चाचाओं के बीच समझौता हुआ था।

अपीलकर्ताओं का तर्क था कि यह ज़मीन पैतृक नहीं थी बल्कि उनकी दादी द्वारा उनके पिता के नाम पर खरीदी गई व्यक्तिगत संपत्ति थी। उन्होंने यह आरोप भी लगाया कि उनके पिता ने अन्य परिवारजनों से मिलकर साजिशन इस डिक्री पर सहमति दी, जिससे उन्हें उनके हिस्से से वंचित किया गया।

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ट्रायल कोर्ट ने वाद खारिज कर दिया था और हाईकोर्ट ने 23.09.2022 को इस निर्णय को बरकरार रखा। इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा।


मुख्य विधिक प्रश्न

  1. क्या 2000 की सहमति डिक्री को अलग दीवानी वाद के माध्यम से चुनौती दी जा सकती है?
  2. क्या विवादित 7 एकड़ ज़मीन पैतृक संपत्ति का हिस्सा थी?
  3. क्या पहले का वाद Order 2 Rule 2, Order 23 Rule 3A CPC और res judicata के सिद्धांत के अंतर्गत बाधित था?

पक्षकारों के तर्क

अपीलकर्ता:
अपीलकर्ताओं का कहना था कि यह ज़मीन पैतृक नहीं थी और सहमति डिक्री धोखे से प्राप्त की गई थी। उन्होंने यह भी कहा कि वे 1999 के वाद में पक्षकार नहीं थे, इसलिए उन्हें नई वाद के माध्यम से चुनौती देने का अधिकार है।

प्रतिवादी:
प्रतिवादियों ने कहा कि अपीलकर्ताओं के पिता ने मूल वाद में उनकी ओर से प्रतिनिधित्व किया था और वाद Order 23 Rule 3A CPC के तहत बाधित था। उन्होंने ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट के निर्णयों का समर्थन किया।


सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां

सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि अपीलकर्ता यह साबित करने में असफल रहे कि उक्त भूमि पैतृक संपत्ति नहीं थी। न्यायालय ने यह स्वीकार किया कि ज़मीन भले ही अपीलकर्ताओं के पिता के नाम पर खरीदी गई हो, परंतु उसे संयुक्त परिवार के फंड से खरीदा गया था, और वह संयुक्त संपत्ति मानी जाएगी।

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कोर्ट ने यह स्पष्ट किया:

“Order 23 Rule 3A के तहत स्पष्ट निषेध के कारण, किसी सहमति डिक्री को एक नई दीवानी वाद के माध्यम से चुनौती नहीं दी जा सकती।”

कोर्ट ने Pushpa Devi Bhagat बनाम Rajinder Singh, (2006) 5 SCC 566 के निर्णय का हवाला देते हुए कहा:

“एक सहमति डिक्री ‘एस्टॉपल’ के रूप में कार्य करती है और यह तब तक वैध और बाध्यकारी होती है जब तक कि उसे पारित करने वाली अदालत द्वारा, Order 23 Rule 3 के प्रावधान के अंतर्गत दायर आवेदन पर आदेश देकर रद्द न किया जाए।”

कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की:

“यदि अपीलकर्ताओं के पिता को सहमति डिक्री से कोई आपत्ति नहीं थी, तो हम यह समझ नहीं पाते कि अपीलकर्ता उसे अब कैसे चुनौती दे सकते हैं।”

इसके साथ ही, कोर्ट ने यह भी पाया कि नई वाद Order 2 Rule 2 CPC और constructive res judicata के सिद्धांत के तहत बाधित थी क्योंकि संबंधित मुद्दे पहले ही तय किए जा चुके थे।

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अंतिम निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के 23.09.2022 के निर्णय को बरकरार रखते हुए अपील खारिज कर दी। न्यायालय ने कहा:

“उपरोक्त तथ्यों को देखते हुए, हमारे लिए हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं बनता… अतः यह अपील खारिज की जाती है।”

इसके साथ ही, कोर्ट ने सभी अंतरिम आदेशों को समाप्त कर दिया और लंबित सभी आवेदन निस्तारित कर दिए।


मामले का नाम: Manjunath Tirakappa Malagi and Anr. vs. Gurusiddappa Tirakappa Malagi (Dead through LRs)
कोर्ट: सुप्रीम कोर्ट

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