एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में, सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बी. एस. येदियुरप्पा की याचिका को बड़ी पीठ को सौंप दिया है, जिसमें भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत अभियोजन की स्वीकृति की अनिवार्यता से जुड़े महत्वपूर्ण कानूनी प्रश्न उठाए गए हैं। यह निर्णय तब आया जब पीठ को पता चला कि समान कानूनी प्रश्नों को एक अन्य मामले में पहले ही एक समन्वय पीठ ने बड़ी पीठ के पास भेजा है, जिससे न्यायिक शिष्टाचार (judicial propriety) के सिद्धांत के तहत पुनर्विचार आवश्यक हो गया।
न्यायमूर्ति जे. बी. पारडीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने मंजू सुराना बनाम सुनील अरोड़ा मामले का हवाला दिया, जिसमें समान प्रकार के मुद्दों पर विचार चल रहा है। इसके मद्देनज़र, सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री को निर्देश दिया गया है कि इन सभी याचिकाओं को एक साथ संलग्न कर मुख्य न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत किया जाए।
यह मामला मूलतः बेंगलुरु के ए. आलम पशा द्वारा दायर शिकायत से जुड़ा है, जिसके परिणामस्वरूप बी. एस. येदियुरप्पा, पूर्व उद्योग मंत्री मुरुगेश आर. निरानी और कर्नाटक उद्योग मित्र के पूर्व प्रबंध निदेशक शिवस्वामी के. एस. के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप पुनर्जीवित हुए थे। इन पर आरोप है कि इन्होंने उच्चस्तरीय स्वीकृति समिति की औद्योगिक भूमि आवंटन प्रक्रिया को प्रभावित करने हेतु फर्जी दस्तावेज़ तैयार करने की साजिश रची थी।

कर्नाटक हाईकोर्ट ने 5 जनवरी 2021 के अपने आदेश में यह माना था कि याचिका पहले अभियोजन स्वीकृति के अभाव में खारिज की गई थी, लेकिन आरोपी जब पद छोड़ चुके हों, तब उनके खिलाफ नई शिकायत दाखिल की जा सकती है। हालांकि, इसने सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी वी. पी. बालिगर के खिलाफ अभियोजन की अनुमति नहीं दी थी।
अब सुप्रीम कोर्ट यह विचार कर रहा है कि क्या दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के तहत मजिस्ट्रेट द्वारा जांच का आदेश देने से पहले सक्षम प्राधिकारी की स्वीकृति आवश्यक है, विशेषकर तब जब जांच की प्रक्रिया में प्रारंभिक पूछताछ या एफआईआर दर्ज करना शामिल हो। यह प्रश्न भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 17A के संदर्भ में और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, जिसमें यह प्रावधान है कि किसी लोकसेवक के आधिकारिक कृत्यों से संबंधित किसी भी जांच से पहले पूर्व स्वीकृति अनिवार्य है।
बड़ी पीठ अब यह तय करेगी कि न्यायिक समीक्षा के बाद भी स्वीकृति की आवश्यकता कितनी प्रासंगिक रहती है और क्या धारा 17A की शर्तें मजिस्ट्रेट के आदेशों को प्रभावित या निरस्त कर सकती हैं। यह जटिल कानूनी व्याख्या यह तय करेगी कि लोकसेवकों के विरुद्ध जांच और न्यायिक विवेक पर पूर्व स्वीकृति की शर्तें किस हद तक अंकुश लगाती हैं।