परिसीमा अवधि उस तिथि से शुरू होती है जब कार्रवाई का कारण पहली बार उत्पन्न हुआ, न कि उस तिथि से जब वादी को पूरी जानकारी प्राप्त हुई: सुप्रीम कोर्ट

निखिला दिव्यांग मेहता एवं अन्य बनाम हितेश पी. संघवी एवं अन्य [एसएलपी (सी) संख्या 13459/2024 से उत्पन्न सिविल अपील] में, सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात उच्च न्यायालय के निर्णय को रद्द कर दिया और परिसीमा द्वारा वर्जित सिविल मुकदमे को खारिज करने के ट्रायल कोर्ट के आदेश को बहाल कर दिया। न्यायालय ने पुनः पुष्टि की कि परिसीमा अधिनियम, 1963 के अनुच्छेद 58 के तहत परिसीमा अवधि उस तिथि से शुरू होती है जब कार्रवाई का कारण पहली बार उत्पन्न होता है, न कि उस तिथि से जब वादी विवादित तथ्यों का ‘पूर्ण जानकारी प्राप्त करने का दावा करता है।

मामले की पृष्ठभूमि:

यह वाद हितेश पी. संघवी द्वारा उनके पिता प्रमोद केसुरदास संघवी (मृतक) की दिनांक 04.02.2014 की वसीयत तथा 20.09.2014 के कोडिसिल को निरस्त घोषित करवाने के लिए दायर किया गया था। वादी ने यह भी प्रार्थना की थी कि वसीयत व कोडिसिल के आधार पर किसी भी लेन-देन को स्थायी रूप से रोका जाए। प्रतिवादियों में वादी की तीन बहनें—श्रीमती हर्षाबेन विजय मेहता, श्रीमती निखिला दिव्यांग मेहता, श्रीमती अमी राजेश पारिख—and एक भांजा शामिल थे।

वादपत्र के अनुसार, वसीयतकर्ता की मृत्यु 21.10.2014 को हुई थी और वादी को वसीयत व कोडिसिल के बारे में नवंबर 2014 के पहले सप्ताह में जानकारी प्राप्त हुई थी। यह वाद 21.11.2017 को दायर किया गया।

ट्रायल कोर्ट में पक्षकारों की दलीलें:

प्रतिवादियों ने सीपीसी की आदेश VII नियम 11(d) के तहत प्रार्थनापत्र दायर कर यह दलील दी कि वादी को नवंबर 2014 में ही वसीयत व कोडिसिल की जानकारी मिल गई थी, इसलिए वाद तीन वर्ष की सीमा अवधि से बाहर था और स्पष्ट रूप से समयबद्ध था।

वादी ने तर्क दिया कि लिमिटेशन कानून व तथ्य का मिश्रित प्रश्न है और इसे साक्ष्यों के माध्यम से सिद्ध करने का अवसर दिया जाना चाहिए।

ट्रायल कोर्ट का निष्कर्ष:

सिटी सिविल कोर्ट, अहमदाबाद ने पाया कि वादी की स्वयं की प्रस्तुतियों के अनुसार, कारण का जन्म नवंबर 2014 के पहले सप्ताह में हो गया था। अतः 21.11.2017 को दायर किया गया वाद अनुच्छेद 58 के तीन वर्ष की सीमा अवधि से परे था। इसलिए वादपत्र को CPC आदेश VII नियम 11(d) के अंतर्गत खारिज कर दिया गया।

हाईकोर्ट का निर्णय:

गुजरात हाईकोर्ट ने दिनांक 08.02.2024 को ट्रायल कोर्ट के आदेश को पलट दिया। उसने यह माना कि लिमिटेशन का प्रश्न तथ्यों पर आधारित है और इसे प्रारंभिक चरण में तय नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने यह भी कहा कि वादपत्र में अनेक प्रार्थनाएँ थीं, और यदि एक राहत समयबद्ध है तो उससे संपूर्ण वाद खारिज नहीं किया जा सकता।

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सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण:

न्यायमूर्ति पंकज मित्तल और न्यायमूर्ति एस.वी.एन. भट्टी की पीठ ने हाईकोर्ट की reasoning से असहमति व्यक्त की। कोर्ट ने अनुच्छेद 58 का हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि “घोषणात्मक राहत” के लिए सीमा-काल उसी समय से शुरू होती है जब “वाद करने का अधिकार पहली बार उत्पन्न होता है।”

कोर्ट ने वादी की वादपत्र की अनुच्छेद 3(o), 4 और 6 में की गई प्रस्तुतियों का उल्लेख करते हुए कहा कि कारण का जन्म अधिकतम नवंबर 2014 के पहले सप्ताह में हो चुका था। इसलिए, तीन वर्ष की सीमा अवधि नवंबर 2017 के पहले सप्ताह में समाप्त हो गई और 21.11.2017 को दायर वाद स्पष्ट रूप से समयबद्ध था।

कोर्ट ने स्पष्ट कहा:

“यह पूरी तरह से गलतफहमी है कि ‘ज्ञान’ और ‘पूर्ण ज्ञान’ में कोई अंतर किया जाए। सर्वप्रथम, लिमिटेशन उस दिन से गिनी जाती है जब कारण का जन्म हुआ, न कि किसी भी पश्चात तिथि से।”

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हाईकोर्ट की इस दलील को खारिज करते हुए कि अन्य प्रार्थनाएँ अलग थीं, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी राहतें मुख्य घोषणात्मक राहत की परिधि में थीं। अतः जब मुख्य राहत समयबद्ध हो चुकी थी, तब सम्पूर्ण वाद अस्थिर था।

सुप्रीम कोर्ट ने अपील को स्वीकार करते हुए गुजरात हाईकोर्ट का दिनांक 08.02.2024 का आदेश रद्द किया और ट्रायल कोर्ट का 23.10.2018 का आदेश—जिसमें वादपत्र CPC आदेश VII नियम 11(d) के अंतर्गत खारिज किया गया था—को पुनः बहाल कर दिया।

वाद शीर्षक:

निखिला दिव्यांग मेहता व अन्य बनाम हितेश पी. संघवी व अन्य,
सिविल अपील सं. ___ /2025 (SLP (C) No. 13459 of 2024 से उत्पन्न)

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