सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक निर्णय में कहा है कि राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचारार्थ भेजे गए विधेयकों पर राष्ट्रपति को तीन माह के भीतर निर्णय लेना होगा। यह आदेश विधायी प्रक्रिया को सुचारु और समयबद्ध बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जिससे विधेयकों के अनुमोदन में होने वाली अनावश्यक देरी रोकी जा सकेगी।
शुक्रवार देर रात सार्वजनिक किए गए 415 पन्नों के विस्तृत फैसले में अदालत ने स्पष्ट किया कि राज्यपालों द्वारा विधेयकों को लंबे समय तक लंबित रखने की प्रवृत्ति संवैधानिक प्रक्रिया में बाधा बन रही है। यह फैसला उस मामले के परिप्रेक्ष्य में आया है जिसमें तमिलनाडु के राज्यपाल आर एन रवि द्वारा 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने में देरी की गई थी।
न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने कहा कि राज्यपालों द्वारा विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने में अत्यधिक देरी “अवैध और विधिक रूप से त्रुटिपूर्ण” है। अदालत ने यह भी कहा कि यदि राष्ट्रपति तीन माह की निर्धारित अवधि के भीतर निर्णय नहीं लेती हैं, तो उस देरी के लिए उचित कारण दर्ज किए जाने चाहिए और संबंधित राज्य को सूचित किया जाना चाहिए।

फैसले में राज्यों को भी निर्देश दिया गया है कि वे केंद्र सरकार द्वारा मांगी गई जानकारी को समय पर प्रदान करें, ताकि विधायी प्रक्रिया में कोई रुकावट न आए। संविधान के अनुच्छेद 200 के अंतर्गत, राज्यपाल को किसी विधेयक को स्वीकृत करने या राष्ट्रपति के पास विचारार्थ भेजने का अधिकार है, परंतु अब तक इसके लिए कोई निश्चित समय-सीमा नहीं थी।
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि राज्यपालों को राज्य के मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना चाहिए और अपनी स्थिति का उपयोग विधेयकों को अनावश्यक रूप से रोकने या टालने के लिए नहीं करना चाहिए।
अदालत ने यह भी कहा कि यदि राज्यपाल समय-सीमा का पालन नहीं करते हैं, तो उनके आचरण की न्यायिक समीक्षा संभव है। यह आदेश न्यायपालिका द्वारा यह सुनिश्चित करने का हिस्सा है कि कार्यपालिका की शक्तियों का दुरुपयोग कर राज्य विधानसभाओं की मंशा को बाधित न किया जाए।
यह निर्णय संविधान की गरिमा बनाए रखने और संघीय ढांचे में संतुलन बनाए रखने की दिशा में एक मजबूत पहल माना जा रहा है।