इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने एक वकील को न्यायालय की अवमानना का दोषी ठहराते हुए छह महीने के साधारण कारावास और ₹2,000 के जुर्माने की सजा सुनाई है। न्यायमूर्ति विवेक चौधरी और न्यायमूर्ति बृज राज सिंह की खंडपीठ ने पाया कि वकील ने न्यायालय की गरिमा को ठेस पहुंचाई और न्यायिक कार्यवाही में हस्तक्षेप किया। यह कार्रवाई तब की गई जब उक्त वकील ने न्यायालय की कार्यवाही के दौरान अशोभनीय आचरण किया, वकीलों के निर्धारित परिधान पहनने से इनकार किया, और न्यायाधीशों को “गुंडा” कहा।
मामले की पृष्ठभूमि
अवमानना की कार्यवाही स्वतः संज्ञान लेकर 18 अगस्त 2021 को प्रारंभ की गई थी, जिसमें वकील द्वारा की गई दो विशिष्ट घटनाओं को आधार बनाया गया।
पहली घटना (18 अगस्त 2021):
जब न्यायालय ने प्रातः सत्र आरंभ किया, वकील बिना वकीलों की निर्धारित पोशाक के, खुले बटन वाली कमीज़ पहनकर उपस्थित हुए। जब न्यायालय ने उन्हें उचित पोशाक पहनने या कम से कम शालीन वस्त्रों में उपस्थित होने की सलाह दी, तो उन्होंने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि उन्होंने बार काउंसिल के ड्रेस कोड नियमों को चुनौती दी है। जब उनसे शर्ट के बटन बंद करने को कहा गया, तो उन्होंने दुर्व्यवहार किया, अपशब्द कहे, कार्यवाही में बाधा डाली और खुले न्यायालय में कहा कि न्यायाधीश “गुंडों जैसा व्यवहार” कर रहे हैं।
दूसरी घटना (16 अगस्त 2021):
बार एसोसिएशन के चुनाव से संबंधित एक जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान, वकील—जो उस याचिका में पक्षकार भी नहीं थे—बिना पोशाक के जबरन न्यायालय कक्ष में घुसे और ऊंची आवाज़ में चिल्लाने लगे कि उन्हें भी न्यायालय को संबोधित करने का अधिकार है।
न्यायालय का विश्लेषण
18 अगस्त को वकील को दोपहर 3:00 बजे तक हिरासत में लेकर आत्मचिंतन का अवसर दिया गया, लेकिन रिहा होने के बाद भी उन्होंने अपना आचरण नहीं सुधारा।
24 अगस्त 2021 को उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी किया गया, किंतु उन्होंने कोई जवाब या शपथपत्र दाखिल नहीं किया। न्यायालय ने पाया कि उन्हें कई अवसर दिए गए, परंतु उन्होंने कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया और न ही पछतावा दिखाया।
न्यायालय ने Ajay Kumar Pandey (In Re) [(1996) SCC (Cri) 1391], Arundhati Roy, In Re [(2002) 3 SCC 343], तथा D.C. Saxena v. Chief Justice of India [(1996) 5 SCC 216] जैसे सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अनुचित आलोचना की छूट नहीं देती।
खंडपीठ ने कहा:
“न्यायालयों की गरिमा बनाए रखना लोकतांत्रिक व्यवस्था में कानून के शासन का एक मौलिक सिद्धांत है, और न्यायिक संस्थानों की आलोचना यदि ऐसी भाषा में की जाए जिससे न्यायालय की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचे, तो उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।”
न्यायालय ने यह भी कहा:
“न्यायालय की प्रतिष्ठा को कलंकित करना… न्याय की मूलधारा को ही दूषित करना है।”
न्यायालय ने वकील के आचरण को Contempt of Courts Act, 1971 की धारा 2(c)(i) (न्यायालय की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाना) तथा धारा 2(c)(ii) (न्यायिक कार्यवाही में हस्तक्षेप करना) के अंतर्गत अपराध की श्रेणी में माना।
पूर्ववृत्त का उल्लेख
न्यायालय ने पाया कि उक्त वकील का पूर्व में भी अपमानजनक आचरण रहा है। 2003 से अब तक कई मामलों में उनके खिलाफ अवमानना की कार्यवाहियाँ लंबित हैं। वर्ष 2017 में भी उन्हें तीन महीने की सजा दी गई थी और दो वर्षों के लिए हाईकोर्ट परिसर में प्रवेश पर रोक लगाई गई थी, जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी बरकरार रखा था।
अंतिम निर्णय
न्यायालय ने मामले की गंभीरता को देखते हुए निम्नलिखित आदेश पारित किया:
- छह महीने का साधारण कारावास
- ₹2,000 का जुर्माना, जुर्माना न देने की स्थिति में अतिरिक्त एक महीने का कारावास
- आरोपी को चार सप्ताह के भीतर लखनऊ के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष आत्मसमर्पण करने का निर्देश
साथ ही, न्यायालय ने इलाहाबाद हाईकोर्ट नियमावली के अध्याय XXIV नियम 11(3) के तहत नोटिस जारी कर पूछा है कि क्यों न वकील को तीन वर्षों के लिए इलाहाबाद और लखनऊ पीठ के समक्ष अभ्यास से वंचित कर दिया जाए। इसके लिए उन्हें 1 मई 2025 तक उत्तर देने और अगली सुनवाई की तिथि पर व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने का निर्देश दिया गया है।
उनकी संविधान के अनुच्छेद 134A के अंतर्गत अपील करने की मौखिक याचिका को भी न्यायालय ने अस्वीकृत कर दिया।