सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड के रुद्रपुर स्थित फास्ट ट्रैक कोर्ट द्वारा नाबालिग लड़की से बलात्कार और हत्या के मामले में मौत की सज़ा पाए करनदीप शर्मा @ रजिया @ राजू को बरी कर दिया है। कोर्ट ने फैसले में कहा कि ट्रायल में गंभीर खामियां थीं—जिनमें एक अवैध कबूलनामा और डीएनए साक्ष्य की कमी शामिल है। यह फैसला न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने सुनाया।
पृष्ठभूमि:
यह मामला 25-26 जून 2016 की रात का है जब उत्तराखंड के फसियापुरा गांव में जागरण कार्यक्रम के दौरान एक नाबालिग लड़की लापता हो गई थी। अगली सुबह उसका शव पास के खेत में मिला। पीड़िता के पिता ने एफआईआर दर्ज करवाई, जिसमें आरोप था कि लड़की के साथ बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी गई।
28 जून 2016 को पुलिस ने करनदीप शर्मा को गिरफ्तार किया और उस पर आईपीसी की धाराएं 376A, 302, 366, 363, 201 और पॉक्सो एक्ट की धाराएं 5/6 के तहत आरोप लगाए गए।

ट्रायल कोर्ट ने उसे दोषी करार देते हुए 376A और 302 के तहत मौत की सज़ा सुनाई। उत्तराखंड हाई कोर्ट ने 5 जनवरी 2018 को सज़ा की पुष्टि की। इसके बाद आरोपी ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर की।
अपीलकर्ता की दलीलें:
आरोपी की ओर से वकील ने कहा कि यह मामला पूरी तरह से परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित है, खासकर “आखिरी बार साथ देखा गया” सिद्धांत और फॉरेंसिक डीएनए रिपोर्ट पर। दलीलें थीं:
- धारा 164 सीआरपीसी के तहत लिया गया कबूलनामा जबरदस्ती और दबाव में लिया गया था, और ट्रायल या हाई कोर्ट ने इस पर भरोसा नहीं किया।
- पहचान परेड नहीं करवाई गई, जबकि गवाह आरोपी को पहले से नहीं जानते थे।
- डीएनए रिपोर्ट स्वीकार्य नहीं थी क्योंकि जिसने रिपोर्ट तैयार की, उस विशेषज्ञ की गवाही नहीं करवाई गई।
- मुकदमे की प्रक्रिया जल्दबाजी में की गई और आरोपी को पर्याप्त कानूनी सहायता नहीं दी गई।
राज्य की दलीलें:
राज्य सरकार ने कहा कि अभियोजन पक्ष के कई गवाह (PW-2, PW-3, PW-5, PW-6, PW-8, और PW-11) ने लगातार गवाही दी कि पीड़िता को आखिरी बार आरोपी के साथ देखा गया था। इसके अलावा, डीएनए रिपोर्ट का हवाला दिया गया, जिसमें बताया गया कि पीड़िता के कपड़ों और शरीर पर मिला डीएनए, आरोपी से मेल खाता है।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण:
सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि ट्रायल न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है और आरोपी के अधिकारों का हनन हुआ:
- आरोपी को चार्ज फ्रेमिंग और गवाही शुरू होने तक कोई कानूनी सहायता मुहैया नहीं करवाई गई।
- आरोपी का कबूलनामा गलत तरीके से स्वीकार किया गया। पुलिस अधिकारी (अभियोजन गवाह) ने कोर्ट में इसका उल्लेख किया, जो भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धाराओं 24 से 26 का उल्लंघन है।
- जिन गवाहों ने दावा किया कि उन्होंने आरोपी को पीड़िता के साथ देखा था, उन्होंने कोर्ट में उसकी पहचान नहीं की, और न ही कोई पहचान परेड करवाई गई।
- डीएनए सैंपल की सीलिंग और कस्टडी चेन में गंभीर खामियां थीं। कोर्ट ने Rahul v. State of Delhi [(2023) 1 SCC 83] का हवाला देते हुए कहा कि केवल डीएनए रिपोर्ट दिखाना पर्याप्त नहीं है, जब तक रिपोर्ट तैयार करने वाले विशेषज्ञ की गवाही न हो और प्रमाणिक तकनीकें साबित न हों।
- पीठ ने कहा, “रिकॉर्ड में ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जिससे यह संतुष्ट हुआ जा सके कि एकत्र किए गए सैंपल/वस्तुएं ठीक प्रकार से सील की गई थीं या फॉरेंसिक लैब पहुंचने तक वही स्थिति बनी रही।”
कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि “डीएनए/एफएसएल रिपोर्ट को साक्ष्य के रूप में नहीं पढ़ा जा सकता,” और “आखिरी बार साथ देखा गया” सिद्धांत पूरी तरह निरस्त हो गया क्योंकि गवाहों ने समय पर पुलिस को कुछ नहीं बताया।
निर्णय:
सुप्रीम कोर्ट ने अपील को मंज़ूरी देते हुए ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट के फैसलों को रद्द कर दिया। करनदीप शर्मा को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया और आदेश दिया गया कि यदि किसी अन्य मामले में वांछित न हो, तो उसे रिहा किया जाए।
कोर्ट ने कहा, “ट्रायल निष्पक्ष रूप से नहीं किया गया और अपीलकर्ता को अपने बचाव का उचित अवसर नहीं दिया गया।”
मामला: करनदीप शर्मा @ रजिया @ राजू बनाम उत्तराखंड राज्य
अपील संख्या: क्रिमिनल अपील नंबर 630-631 / 2018
न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
पीठ: न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति संजय करोल, न्यायमूर्ति संदीप मेहता