इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कानपुर नगर के अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के उस आदेश को रद्द कर दिया है, जिसमें एक आरोपी के खिलाफ बिना आवश्यक संतोष रिकॉर्ड किए गैर-जमानती वारंट जारी करते हुए एकसाथ धारा 82 और 83 सीआरपीसी के तहत कार्यवाही शुरू कर दी गई थी। कोर्ट ने कहा कि ऐसा आदेश कानून के विपरीत और विकृत है।
मामला क्या था
यह प्रकरण बीएनएसएस की धारा 528 के तहत दायर आवेदन संख्या 9806/2025 से जुड़ा है, जिसे देवेन्द्र सिंह द्वारा उत्तर प्रदेश राज्य और एक अन्य के विरुद्ध दायर किया गया था। यह मामला आईपीसी की धारा 452, 323, 504, 506, 427 और 392 के तहत दर्ज मामला संख्या 395/2014 (मनोरमा सिंह बनाम देवेन्द्र सिंह) से उत्पन्न हुआ था, जो थाना कल्याणपुर, जनपद कानपुर नगर में दर्ज हुआ था।
इससे पूर्व, हाईकोर्ट ने वर्ष 2016 में धारा 482 सीआरपीसी के तहत दाखिल आवेदन संख्या 1438/2016 पर सुनवाई करते हुए ट्रायल कार्यवाही पर रोक लगा दी थी। हालांकि, यह आवेदन 29 मई 2024 को अभियोजन की अनुपस्थिति में खारिज कर दिया गया, और उसकी पुनर्विचार याचिका अब भी लंबित है।

20 फरवरी 2025 को ट्रायल कोर्ट ने देवेन्द्र सिंह के खिलाफ गैर-जमानती वारंट जारी करते हुए एकसाथ धारा 82 और 83 सीआरपीसी के तहत कार्यवाही शुरू कर दी।
पक्षकारों की दलीलें
आवेदक के वकील ने तर्क दिया कि impugned आदेश बिना किसी वैधानिक संतोष को रिकॉर्ड किए जारी किया गया, जो पूरी तरह से अवैध है। यह भी कहा गया कि गैर-जमानती वारंट और धारा 82 व 83 की कार्यवाही एकसाथ जल्दबाज़ी में और आवश्यक प्रक्रिया का पालन किए बिना शुरू की गई।
सरकारी वकील ने आवेदन का विरोध किया और कहा कि ट्रायल कोर्ट का आदेश वैधानिक रूप से त्रुटिहीन है।
न्यायालय का विश्लेषण
न्यायमूर्ति राज बीर सिंह ने कहा कि यह विधि का स्थापित सिद्धांत है कि धारा 82 सीआरपीसी के तहत उद्घोषणा और धारा 83 के तहत संपत्ति की कुर्की एकसाथ तभी की जा सकती है जब कोर्ट यह संतोष व्यक्त करे कि आरोपी अपनी संपत्ति को हटाने या बेचने की तैयारी में है, और यह संतोष आदेश में स्पष्ट रूप से दर्ज होना चाहिए।
कोर्ट ने इंद्रमणि पांडे बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (धारा 482 सीआरपीसी के तहत आवेदन संख्या 25200/2012, निर्णय दिनांक 5 अक्टूबर 2012) का हवाला देते हुए कहा:
“मजिस्ट्रेट के समक्ष एक रिपोर्ट होनी चाहिए कि जिसके खिलाफ वारंट जारी हुआ है, वह फरार है या छिपा हुआ है… सामान्य नियम है कि उद्घोषणा की अवधि 30 दिन की समाप्ति तक प्रतीक्षा की जाती है, ताकि अभियुक्त को उपस्थित होने का अवसर मिल सके… अतः ट्रायल कोर्ट द्वारा धारा 82/83 सीआरपीसी के तहत जारी उद्घोषणा कानून के अनिवार्य प्रावधानों के विरुद्ध है।”
इन सिद्धांतों को लागू करते हुए कोर्ट ने पाया:
“श्रीमान मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 82 सीआरपीसी के तहत कार्यवाही शुरू करने के लिए कोई संतोष दर्ज नहीं किया गया, और इससे भी अधिक, धारा 82 एवं 83 दोनों की कार्यवाही एकसाथ जारी करने के लिए कोई संतोष नहीं दर्शाया गया… इस प्रकार, मजिस्ट्रेट ने गंभीर विधिक त्रुटि की है।”
निर्णय
कोर्ट ने 20 फरवरी 2025 का विवादित आदेश रद्द करते हुए निर्देश दिया कि मजिस्ट्रेट शिकायतकर्ता के आवेदन पर कानून के अनुसार नया आदेश पारित करें। बीएनएसएस की धारा 528 के तहत दायर आवेदन स्वीकार कर लिया गया।
प्रकरण: देवेन्द्र सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य, न्यूट्रल सिटेशन: 2025:AHC:46291, निर्णय दिनांक: 3 अप्रैल 2025, न्यायमूर्ति राज बीर सिंह, कोर्ट नंबर 71, इलाहाबाद हाईकोर्ट।