अनुशासनात्मक कार्यवाही में कब हाईकोर्ट कारण बताओ नोटिस या चार्जशीट को रद्द कर सकता है? सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया

अनुशासनात्मक मामलों में न्यायिक समीक्षा की सीमाओं को स्पष्ट करते हुए, सुप्रीम कोर्ट की पीठ — जिसमें न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति मनमोहन शामिल थे — ने यह निर्णय दिया कि हाईकोर्ट केवल उन्हीं मामलों में कारण बताओ नोटिस या चार्जशीट में हस्तक्षेप कर सकता है, जहाँ अधिकार क्षेत्र की स्पष्ट कमी हो या कोई स्पष्ट रूप से अवैधता पाई जाए।

यह फैसला राज्य बनाम रुक्मा केश मिश्रा [सिविल अपील (SLP C No. 19223/2024)] में आया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड हाईकोर्ट के उस फैसले को खारिज कर दिया जिसमें एक वरिष्ठ राज्य सिविल सेवा अधिकारी की बर्खास्तगी को रद्द किया गया था।

मामले के तथ्य:

उत्तरदाता रुक्मा केश मिश्रा, झारखंड राज्य सिविल सेवा के अधिकारी थे, जिन पर वित्तीय अनियमितताओं, जालसाजी और अनुचित आचरण जैसे कई आरोप लगे थे।

Video thumbnail

13 जनवरी 2014 को उनके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करने का प्रस्ताव (जिसमें ड्राफ्ट चार्जशीट भी शामिल थी) मुख्यमंत्री को भेजा गया, जिसे 21 मार्च 2014 को स्वीकृति मिली।

चार्जशीट औपचारिक रूप से 4 अप्रैल 2014 को जारी की गई और उत्तरदाता ने जांच में भाग लिया। अधिकांश आरोपों में दोषी पाए जाने पर उन्हें 16 जून 2017 को, मंत्रिपरिषद की स्वीकृति के बाद, सेवा से बर्खास्त कर दिया गया।

इसके बाद मिश्रा ने झारखंड हाईकोर्ट में याचिका दायर कर यह दलील दी कि चार्जशीट को जारी करते समय मुख्यमंत्री की अलग से स्वीकृति नहीं ली गई, अतः यह अवैध है।

READ ALSO  निहित स्वार्थों के लिए कुछ व्यक्तियों द्वारा आपराधिक ज्यूडिशियल मशीनरी का दुरुपयोग किया जा रहा है; अदालतों को सतर्क रहना होगा: सुप्रीम कोर्ट

कानूनी प्रश्न:

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य प्रश्न यह था:

क्या अनुशासनात्मक कार्यवाही के दौरान जारी की गई चार्जशीट इस आधार पर अवैध मानी जा सकती है कि उसे अलग से सक्षम प्राधिकारी से स्वीकृति नहीं मिली, जबकि पहले ही संपूर्ण प्रस्ताव (जिसमें चार्जशीट भी शामिल थी) को स्वीकृति मिल चुकी थी?

हाईकोर्ट का निर्णय:

झारखंड हाईकोर्ट की एकल पीठ और बाद में डिवीजन बेंच ने उत्तरदाता की दलील स्वीकार की।

Union of India v. B.V. Gopinath (2014) और State of Tamil Nadu v. Promod Kumar (2018) जैसे फैसलों पर भरोसा करते हुए कोर्ट ने कहा कि सक्षम प्राधिकारी से चार्जशीट की स्वीकृति आवश्यक थी और उसकी अनुपस्थिति में बर्खास्तगी अवैध है।

अतः बर्खास्तगी को रद्द कर अधिकारी को सभी लाभों के साथ बहाल करने का निर्देश दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय:

सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के निर्णय को पलटते हुए कहा:

“मुख्यमंत्री द्वारा स्वीकृत प्रस्ताव में ड्राफ्ट चार्जशीट भी शामिल थी। जब तक नियमों में स्पष्ट रूप से अलग या बाद की स्वीकृति की आवश्यकता न हो, तब तक अलग स्वीकृति की जरूरत नहीं होती।”

कोर्ट ने यह भी कहा कि झारखंड सिविल सेवा नियमावली, 1930 के नियम 55 (जो उस समय लागू था) में चार्जशीट जारी करने के लिए किसी विशिष्ट प्राधिकारी का उल्लेख नहीं था, अतः कोई भी वरिष्ठ अधिकारी चार्जशीट जारी कर सकता था।

कोर्ट ने यह भी पाया कि हाईकोर्ट ने Gopinath और Promod Kumar मामलों को गलत संदर्भ में लागू किया, क्योंकि वे भिन्न सेवा नियमों के अंतर्गत थे जहाँ स्पष्ट स्वीकृति आवश्यक थी।

READ ALSO  राष्ट्रीय खेल संघों को खेल संहिता के प्रत्येक अनिवार्य पहलू का पालन करना चाहिए: दिल्ली हाईकोर्ट

“Stare decisis” सिद्धांत का उल्लेख करते हुए कोर्ट ने कहा कि पुराने फैसलों का अंधानुकरण नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि तथ्यात्मक और कानूनी भिन्नताओं को ध्यान में रखते हुए ही उन्हें लागू किया जाना चाहिए।

चार्जशीट में न्यायिक हस्तक्षेप पर स्पष्टता:

कोर्ट ने अपने पुराने फैसले Kunisetty Satyanarayana (2006) का हवाला देते हुए कहा:

“सिर्फ कारण बताओ नोटिस या चार्जशीट जारी होने मात्र से कोई विधिक कारण उत्पन्न नहीं होता, जब तक कि वह किसी ऐसे प्राधिकारी द्वारा जारी न हो जिसके पास अधिकार न हो, या वह पूर्णतः अवैध हो। हाईकोर्ट को ऐसे प्रारंभिक चरणों में हस्तक्षेप से बचना चाहिए जब तक कि कोई स्पष्ट अधिकारहीनता या स्पष्ट अवैधता न हो।”

संविधान के अनुच्छेद 311 पर टिप्पणी:

कोर्ट ने दोहराया:

“अनुच्छेद 311(1) यह नहीं कहता कि अनुशासनात्मक कार्यवाही केवल नियुक्तिकर्ता प्राधिकारी द्वारा ही शुरू की जाए; यह केवल यह कहता है कि बर्खास्तगी किसी अधीनस्थ अधिकारी द्वारा न की जाए।”

पूर्ववर्ती निर्णयों जैसे Shardul Singh (1970), P.V. Srinivasa Sastry (1993) और Thavasippan (1996) का हवाला देते हुए कोर्ट ने इस व्याख्या की पुष्टि की।

READ ALSO  क्या पुलिस को रात में घूम रहे लोगों से पूछताछ करने का अधिकार है? जाने हाईकोर्ट ने क्या कहा

पीठ की टिप्पणी:

“यदि हाईकोर्ट ने लंबे समय से चले आ रहे निर्णयों को ध्यान से देखा होता, तो इसका निष्कर्ष अवश्य ही भिन्न होता। यह हस्तक्षेप गंभीर न्यायिक त्रुटि का कारण बना।”

अंतिम निर्णय:

सुप्रीम कोर्ट ने झारखंड हाईकोर्ट की एकल और डिवीजन बेंच दोनों के फैसलों को रद्द कर दिया।

मिश्रा की याचिका को खारिज कर दिया।

हालांकि, कोर्ट ने उन्हें सेवा नियमों के तहत एक माह के भीतर अपील या पुनर्विचार याचिका दायर करने की अनुमति दी, और चार्जशीट की वैधता को छोड़कर अन्य मुद्दों पर देरी की छूट दी।

मुख्य निष्कर्ष:

  • हाईकोर्ट केवल उसी स्थिति में चार्जशीट में हस्तक्षेप कर सकता है जब अधिकार क्षेत्र की स्पष्ट कमी हो या कोई स्पष्ट अवैधता हो।
  • यदि नियमों में अलग से स्वीकृति की मांग न हो, तो प्रस्ताव में शामिल ड्राफ्ट चार्जशीट की स्वीकृति ही पर्याप्त है।
  • अनुच्छेद 311(1) नियुक्तिकर्ता प्राधिकारी द्वारा कार्यवाही शुरू करने को आवश्यक नहीं ठहराता।
  • पूर्व निर्णयों को संदर्भ सहित लागू किया जाना चाहिए, न कि यांत्रिक रूप से।

Law Trend
Law Trendhttps://lawtrend.in/
Legal News Website Providing Latest Judgments of Supreme Court and High Court

Related Articles

Latest Articles