सुप्रीम कोर्ट ने एनसीएलएटी को लगाई फटकार, कहा – मंजूर समाधान योजना की अनदेखी करना ‘विचलित करने वाला’, IBC की प्रक्रिया की पवित्रता बनाए रखना आवश्यक

सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय कंपनी विधि अपीलीय न्यायाधिकरण (NCLAT) को इन्सॉल्वेंसी और दिवालियापन संहिता (IBC), 2016 के तहत मंजूर समाधान योजना (Resolution Plan) की अंतिमता से जुड़े एक अहम न्यायिक दृष्टांत की अनदेखी करने पर कड़ी फटकार लगाई है। शीर्ष अदालत ने NCLAT के फैसले को “विकृत” (perverse) करार दिया, जिसमें एक पहले से मंजूर समाधान योजना में शामिल न किए गए दावों को फिर से जीवित कर दिया गया

यह मामला टिहरी आयरन एंड स्टील कास्टिंग लिमिटेड से जुड़ा है, जिसकी IBC के तहत समाधान प्रक्रिया के दौरान आयकर विभाग द्वारा पुराने आकलन वर्षों के लिए अतिरिक्त कर मांग उठाई गई थी। ये मांगें उस अवधि से संबंधित थीं जो समाधान योजना की मंजूरी से पहले की थीं।

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न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भूयान की पीठ ने स्पष्ट किया कि NCLAT ने सुप्रीम कोर्ट के ‘घनश्याम मिश्रा’ मामले में दिए गए स्पष्ट फैसले की अवहेलना की है, जिसमें कहा गया था कि जो दावे समाधान योजना में शामिल नहीं होते, वे समाप्त (extinguished) माने जाते हैं और बाद में उन्हें पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता।

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इस मामले में अपीलकर्ताओं वैभव गोयल और मधु गोयल को एनसीएलटी द्वारा 21 मई, 2019 को समाधान योजना की मंजूरी मिलने के बावजूद पुराने आकलन वर्षों के लिए नई टैक्स मांगों का सामना करना पड़ा। जबकि उनकी योजना में आयकर विभाग की देनदारी ‘संभावित देनदारी’ (contingent liability) के रूप में शामिल थी। लेकिन CIRP के दौरान विभाग ने कोई दावा नहीं उठाया था, इसके बावजूद NCLAT ने इन मांगों को वैध ठहराया।

सुप्रीम कोर्ट ने NCLAT की इस दलील को भी खारिज कर दिया कि चूंकि ‘घनश्याम मिश्रा’ मामला NCLT के समक्ष नहीं रखा गया था, इसलिए उसे मान्य नहीं माना गया। पीठ ने कहा कि यह तर्क कानूनी रूप से टिकाऊ नहीं है, क्योंकि एक बार जब समाधान योजना को मंजूरी मिल जाती है, तो वह सभी ऋणदाताओं और सरकारी प्राधिकरणों पर बाध्यकारी हो जाती है।

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कोर्ट ने टिप्पणी की, “एक अपीलीय न्यायाधिकरण द्वारा बाध्यकारी न्यायिक दृष्टांत की अनदेखी स्वीकार नहीं की जा सकती। इससे समाधान प्रक्रिया की साख और पूर्वानुमेयता प्रभावित होती है, जो सफल इन्सॉल्वेंसी समाधान के लिए आवश्यक है।”

सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा कि ऐसे विलंबित दावों को अनुमति देना न केवल कॉर्पोरेट देनदार के लिए प्रस्तावित ‘नई शुरुआत’ को बाधित करता है, बल्कि IBC की उस मूल भावना को भी नष्ट कर देता है, जिसका उद्देश्य तेज, निश्चित और व्यवसाय को जारी रखने योग्य समाधान प्रक्रिया सुनिश्चित करना है।

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