हस्ताक्षर का मिलान करने में कोर्ट को विशेषज्ञता नहीं, हस्तलेख विशेषज्ञ की राय लेनी चाहिए: इलाहाबाद हाईकोर्ट

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने निर्णय दिया है कि अदालतें हस्ताक्षर की प्रामाणिकता से जुड़े मामलों में स्वयं हस्तलेख विशेषज्ञ की भूमिका न निभाएं, बल्कि विशेषज्ञ की राय लेना आवश्यक है। यह फैसला न्यायमूर्ति अजीत कुमार ने स्मृति सुनीता बनाम स्मृति परमजीत कौर मामले में सुनाया, जिसमें मेरठ के अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश द्वारा हस्तलेख विशेषज्ञ की राय लेने की याचिका खारिज करने के आदेश को निरस्त कर दिया गया।

पृष्ठभूमि

यह मामला एक किरायेदारी विवाद से संबंधित था, जहां याचिकाकर्ता स्मृति सुनीता ने यह साबित करने का प्रयास किया कि वह किराया बकाया नहीं थी और इसके लिए उसने पिछली मकान मालकिन हरभजन कौर द्वारा कथित रूप से हस्ताक्षरित रसीदों पर भरोसा किया। हालांकि, प्रतिवादी स्मृति परमजीत कौर ने तर्क दिया कि हरभजन कौर का निधन 27 नवंबर 2015 को हो चुका था, ऐसे में 12 अप्रैल 2019 की विवादित रसीदों पर उनके हस्ताक्षर नहीं हो सकते।

मुकदमे की कार्यवाही के दौरान, याचिकाकर्ता ने दावा किया कि हरभजन कौर के बेटे, सरदार देवेंद्र सिंह, अपनी माँ के नाम पर किराए की रसीदें जारी करते थे, भले ही उनका निधन हो चुका था। किरायेदार ने तर्क दिया कि यदि विवादित रसीदों के हस्ताक्षर पहले जारी की गई रसीदों के हस्ताक्षरों से मेल खाते हैं, तो किराया बकाया होने का आरोप असत्य सिद्ध हो जाएगा। हालांकि, ट्रायल कोर्ट ने हस्तलेख विशेषज्ञ की राय लेने की याचिका को खारिज कर दिया और स्वयं हस्ताक्षरों की तुलना करने का प्रयास किया।

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याचिकाकर्ता की ओर से एडवोकेट कुशाग्र सिंह और नमन्न राज वंशी ने दलील दी कि ट्रायल कोर्ट द्वारा याचिका खारिज करना गलत था क्योंकि हस्ताक्षर सत्यापन विशेषज्ञता की मांग करता है। वहीं, प्रतिवादी की ओर से एडवोकेट हेमंत कुमार ने तर्क दिया कि चूंकि हरभजन कौर 2015 में गुजर चुकी थीं, इसलिए 2019 की रसीदें अवैध थीं और विशेषज्ञ राय की कोई आवश्यकता नहीं थी।

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कानूनी मुद्दे और हाईकोर्ट की टिप्पणी

हाईकोर्ट के समक्ष मुख्य कानूनी प्रश्न यह था कि क्या ट्रायल कोर्ट बिना विशेषज्ञ सहायता के हस्ताक्षरों की तुलना करने के लिए अधिकृत था? न्यायमूर्ति अजीत कुमार ने सुप्रीम कोर्ट के ओ. भारतन बनाम के. सुधाकरण (1996) 2 SCC 704 और स्टेट बनाम पाली राम, AIR 1979 SC 14 मामलों का हवाला देते हुए कहा कि हस्ताक्षर सत्यापन के मामलों में विशेषज्ञ की राय आवश्यक होती है।

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कोर्ट ने कहा कि हस्ताक्षर की तुलना एक जटिल तकनीकी विश्लेषण है और न्यायाधीशों को केवल नेत्र निरीक्षण के आधार पर निष्कर्ष निकालने से बचना चाहिए

न्यायालय का अवलोकन:
“हालांकि कानून में न्यायाधीश को स्वयं हस्ताक्षर की तुलना करने की अनुमति है, लेकिन सावधानीपूर्वक विचार करने के लिए अदालतों को विशेषज्ञ की राय लेनी चाहिए ताकि गलत निष्कर्ष से बचा जा सके।”

कोर्ट ने यह भी गौर किया कि विवादित हस्ताक्षर गुरुमुखी लिपि में थे, जिससे विशेषज्ञ मूल्यांकन की आवश्यकता और भी महत्वपूर्ण हो गई। कोर्ट ने यह भी प्रश्न उठाया कि क्या हरभजन कौर के बेटे, सरदार देवेंद्र सिंह, उनकी मृत्यु के बाद भी उनके नाम से रसीदें जारी कर रहे थे?

न्यायमूर्ति अजीत कुमार ने स्पष्ट किया:
“तकनीकी विश्लेषण की आवश्यकता वाले मामलों में, न्यायालय को स्वयं निष्कर्ष निकालने के बजाय विशेषज्ञ की राय पर भरोसा करना चाहिए।”

हाईकोर्ट का निर्णय और निर्देश

ट्रायल कोर्ट के आदेश को निरस्त करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि मामले को एक सरकारी मान्यता प्राप्त हस्तलेख विशेषज्ञ के पास भेजा जाए ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि विवादित हस्ताक्षर वास्तव में हरभजन कौर के थे या जाली थे। कोर्ट ने निर्देश दिया कि:

  1. हस्तलेख विशेषज्ञ को एक महीने के भीतर अपनी राय प्रस्तुत करनी होगी।
  2. ट्रायल कोर्ट को यह सुनिश्चित करना होगा कि तीन महीने के भीतर सबूतों की जांच पूरी हो जाए।
  3. मामले में अनावश्यक स्थगन (adjournment) न दिया जाए, ताकि कार्यवाही में देरी न हो।
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इसके अतिरिक्त, कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि हस्तलेख विशेषज्ञ सरकार द्वारा प्रमाणित होना चाहिए ताकि विश्लेषण की विश्वसनीयता बनी रहे। ट्रायल कोर्ट को आदेश की प्रमाणित प्रति प्राप्त होने के दो सप्ताह के भीतर दस्तावेजों को विशेषज्ञ के पास भेजने का निर्देश दिया गया

कोर्ट ने दोनों पक्षों को प्रक्रिया में पूरा सहयोग देने का निर्देश दिया ताकि अनावश्यक देरी से बचा जा सके। विशेषज्ञ रिपोर्ट प्राप्त होने के बाद, ट्रायल कोर्ट को साक्ष्य संकलन की प्रक्रिया पूरी कर जल्द से जल्द निर्णय देना होगा।

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