भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि किसी पावर ऑफ अटॉर्नी की रद्दीकरण (निरस्तीकरण) से उसके तहत पहले से विधिपूर्वक किए गए लेन-देन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वी. रविकुमार बनाम एस. कुमार (SLP (Civil) No. 9472 of 2023) मामले में न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए ट्रायल कोर्ट के निर्णय को बहाल कर दिया, जिसमें वाद को समय सीमा से बाहर मानते हुए खारिज कर दिया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
इस विवाद का केंद्र एक सामान्य पावर ऑफ अटॉर्नी था, जिसे वादी एस. कुमार ने प्रतिवादी वी. रविकुमार के पक्ष में 15 अक्टूबर 2004 को निष्पादित किया था। इस पावर ऑफ अटॉर्नी के आधार पर 2004 से 2009 के बीच कई बिक्री विलेख (Sale Deeds) निष्पादित किए गए।
बाद में, वादी ने 2018 में एक वाद दायर कर इन लेन-देन को शून्य और अमान्य घोषित करने की मांग की तथा प्रतिवादी के विरुद्ध निषेधाज्ञा (injunction) मांगी। प्रतिवादी ने इस वाद की स्वीकार्यता को CPC की आदेश VII नियम 11 के तहत चुनौती दी, यह तर्क देते हुए कि वाद सीमा अवधि (Limitation Period) के बाहर था।
ट्रायल कोर्ट ने वाद को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि वादी को इन लेन-देन की जानकारी 10 जनवरी 2015 को मिल गई थी, जब एक पट्टा (भूमि रिकॉर्ड दस्तावेज) जारी हुआ था, और चूंकि वादी ने वाद 20 सितंबर 2018 को दायर किया, यह सीमा अवधि से बाहर था।
हालांकि, हाईकोर्ट ने इस निर्णय को पलटते हुए कहा कि सीमा अवधि की गणना पावर ऑफ अटॉर्नी की रद्दीकरण (22 सितंबर 2015) से होनी चाहिए, जिससे वाद समय सीमा के भीतर माना गया।
मुख्य कानूनी मुद्दे
- सीमा अवधि की गणना – क्या सीमा अवधि की शुरुआत बिक्री विलेख निष्पादन की तिथि से होगी या पावर ऑफ अटॉर्नी की रद्दीकरण की तिथि से?
- पावर ऑफ अटॉर्नी की रद्दीकरण का प्रभाव – क्या पावर ऑफ अटॉर्नी की रद्दीकरण उसके तहत पहले से निष्पादित लेन-देन को अमान्य कर सकता है?
- पावर ऑफ अटॉर्नी के तहत किए गए लेन-देन की वैधता – क्या एक वैध रूप से निष्पादित पावर ऑफ अटॉर्नी के अंतर्गत किए गए लेन-देन को वर्षों बाद चुनौती दी जा सकती है?
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि पावर ऑफ अटॉर्नी की रद्दीकरण से पहले किए गए लेन-देन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अदालत ने कहा:
“वादी का उद्देश्य वर्षों पहले निपटाए गए मामलों को पुनः खोलना है, यह तर्क देते हुए कि 2004 में प्रदान की गई पावर ऑफ अटॉर्नी को 2015 में रद्द कर दिया गया। हालांकि, यह रद्दीकरण पूर्व में की गई बिक्री को प्रभावित नहीं करता, क्योंकि वे पावर ऑफ अटॉर्नी के तहत विधिपूर्वक निष्पादित की गई थीं।”
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि सीमा अवधि की गणना पावर ऑफ अटॉर्नी की रद्दीकरण की तिथि से नहीं, बल्कि वादी को लेन-देन की जानकारी मिलने की तिथि से की जानी चाहिए। हाईकोर्ट के फैसले को खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा:
“पावर ऑफ अटॉर्नी की रद्दीकरण के आधार पर 11 वर्षों बाद कोई नया वाद दायर नहीं किया जा सकता।”
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी उल्लेख किया कि वादी ने न तो पावर ऑफ अटॉर्नी के निष्पादन को चुनौती दी, न ही यह दावा किया कि इसके तहत किए गए लेन-देन उसकी स्वीकृति से बाहर थे।
कोर्ट ने कहा कि मामले में 2004 से 2009 तक कई संपत्तियों की बिक्री हुई थी, और यह अविश्वसनीय है कि वादी को इन लेन-देन की जानकारी एक दशक तक नहीं थी।
“एक बार जब पावर ऑफ अटॉर्नी धारक ने अधिकारों का प्रयोग करते हुए संपत्तियों को विक्रय कर दिया, तो उसके रद्दीकरण से पूर्व में निष्पादित सौदों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।”
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश को निरस्त करते हुए ट्रायल कोर्ट द्वारा वाद को खारिज किए जाने के फैसले को बहाल कर दिया। अपील को स्वीकृत किया गया, और सभी लंबित आवेदन भी खारिज कर दिए गए।
