इलाहाबाद हाईकोर्ट ने नई आबकारी नीति को बरकरार रखा, ई-लॉटरी प्रणाली के खिलाफ याचिकाएं खारिज

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार की नई आबकारी नीति को बरकरार रखते हुए उन सभी याचिकाओं को खारिज कर दिया है, जिनमें शराब की दुकानों के लाइसेंसों के आवंटन के लिए ई-लॉटरी प्रणाली को चुनौती दी गई थी। न्यायमूर्ति पंकज भाटिया द्वारा सुनाए गए इस फैसले में वैध अपेक्षा (Legitimate Expectation), नियमों की पूर्वव्यापी (Retrospective) लागू करने की वैधता, और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 300ए के तहत संपत्ति के अधिकार जैसे प्रमुख मुद्दों पर विचार किया गया।

मामले की पृष्ठभूमि

राज्य सरकार द्वारा 6 फरवरी 2025 को जारी सरकारी आदेश और 3 मार्च 2025 को आबकारी नियमों में किए गए संशोधनों को चुनौती देने के लिए कई शराब दुकान संचालकों ने उच्च न्यायालय में याचिकाएं दायर की थीं। याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि वे 2018 से अपनी दुकानें संचालित कर रहे थे और उनके लाइसेंस हर वर्ष नवीनीकृत होते थे, जिससे उन्हें आगे भी नवीनीकरण का वैध अधिकार था।

इसके अलावा, याचिकाकर्ताओं ने नई नीति के खंड 5.15.2.2(1)(ga) का भी विरोध किया, जिसमें यह प्रावधान किया गया था कि लाइसेंस की अवधि समाप्त होने के बाद बची हुई शराब सरकार द्वारा जब्त कर नष्ट कर दी जाएगी और इसके लिए किसी प्रकार का मुआवजा नहीं दिया जाएगा। सरकार ने इस नीति का बचाव करते हुए कहा कि शराब व्यवसाय का नियंत्रण पूरी तरह से सरकार के हाथ में है और शराब का व्यापार मौलिक अधिकारों के अंतर्गत नहीं आता।

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प्रमुख कानूनी मुद्दे

1. वैध अपेक्षा और नवीनीकरण अधिकार: याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि पूर्व में किए गए नवीनीकरण के आधार पर उन्हें आगे भी संचालन का अधिकार दिया जाना चाहिए। राज्य सरकार ने इसका खंडन करते हुए उत्तर प्रदेश आबकारी अधिनियम, 1910 की धारा 36ए का हवाला दिया, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि किसी भी लाइसेंसधारी को स्वचालित नवीनीकरण या गैर-नवीनीकरण पर मुआवजे का कोई अधिकार नहीं है।

2. नीति का पूर्वव्यापी प्रभाव: राज्य सरकार ने फरवरी 2025 में नई आबकारी नीति लागू की और मार्च 2025 में नियमों में संशोधन किया। याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि जिस समय टेंडर निकाले गए थे, उस समय जो कानून प्रभावी था, वही लागू होना चाहिए। सरकार ने इसका जवाब देते हुए कहा कि जब तक लाइसेंस जारी नहीं होते, तब तक नीति में बदलाव किया जा सकता है।

3. संपत्ति का अधिकार और शराब स्टॉक की जब्ती: याचिकाकर्ताओं ने यह भी दावा किया कि बिना मुआवजे के उनकी बची हुई शराब का जब्त किया जाना अनुच्छेद 300ए का उल्लंघन है। सरकार ने इस प्रावधान की समीक्षा करने का आश्वासन दिया, जिसे अदालत ने संज्ञान में लिया।

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4. प्रीमियम रिटेल वेंड्स को छूट: याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि नई नीति केवल कुछ प्रकार की दुकानों पर लागू की गई, जबकि प्रीमियम रिटेल वेंड्स ऑफ फॉरेन लिकर (Premium Retail Vends of Foreign Liquor) को इससे छूट दी गई, जिससे यह नीति भेदभावपूर्ण हो गई। राज्य सरकार ने तर्क दिया कि विभिन्न प्रकार की दुकानों के लिए अलग-अलग नियम लागू होते हैं, इसलिए यह भेदभाव नहीं है।

न्यायालय का निर्णय और प्रमुख टिप्पणियां

उच्च न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का हवाला देते हुए याचिकाकर्ताओं की दलीलों को खारिज कर दिया और कहा कि:

  • शराब का व्यापार मौलिक अधिकार नहीं है, जैसा कि खोड़ाई डिस्टिलरीज लिमिटेड बनाम कर्नाटक राज्य (1995) 1 SCC 574 और अन्य महत्वपूर्ण फैसलों में स्पष्ट किया गया है।
  • वैध अपेक्षा (Legitimate Expectation) कोई कानूनी अधिकार नहीं है, जिसे नीति में बदलाव कर समाप्त किया जा सकता है।
  • राज्य सरकार को शराब व्यापार को नियंत्रित करने और लाइसेंस आवंटन की स्वतंत्रता है।
  • बिना मुआवजे के शराब स्टॉक की जब्ती पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए, लेकिन सरकार के आश्वासन को अदालत ने रिकॉर्ड पर लिया।
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न्यायमूर्ति पंकज भाटिया ने अपने निर्णय में टिप्पणी करते हुए कहा:

“कोई भी नागरिक शराब के व्यापार का मौलिक अधिकार दावा नहीं कर सकता। राज्य को पूर्ण अधिकार है कि वह जनहित में नीतियों को नियंत्रित, प्रतिबंधित या परिवर्तित करे।”

उन्होंने यह भी कहा कि “नीतिगत निर्णयों की न्यायिक समीक्षा केवल तभी संभव है जब वे मनमाने, भेदभावपूर्ण या असंवैधानिक साबित हों।”

अदालत में पक्षकारों की प्रस्तुति

याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व वरिष्ठ अधिवक्ता श्री मनोज कुमार द्विवेदी, श्री शोभित मोहन शुक्ला, श्री अनुराग कुमार सिंह, श्री रोहित जायसवाल, और श्री अभिषेक सिंह ने किया।

राज्य सरकार की ओर से डॉ. एल.पी. मिश्रा, अतिरिक्त महाधिवक्ता श्री अनिल प्रताप सिंह, मुख्य स्थायी अधिवक्ता श्री शैलेन्द्र कुमार सिंह, और अन्य राज्य विधि अधिकारियों ने पक्ष रखा।

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