छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में पंचराम उर्फ मन्नू गेंढरे (35) की मौत की सजा को बरकरार रखा है, जिसे एक चार वर्षीय बच्चे की निर्मम हत्या के मामले में दोषी ठहराया गया था। मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति रवींद्र कुमार अग्रवाल की खंडपीठ ने यह स्पष्ट किया कि मृत्यु दंड केवल ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ मामलों के लिए आरक्षित होना चाहिए, लेकिन इसे लागू करने से पहले न्यायालय को अपराध की गंभीरता और दोषी के पुनर्वास की संभावना सहित सभी परिस्थितियों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण करना आवश्यक है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 5 अप्रैल 2022 की एक दर्दनाक घटना से जुड़ा है, जब पंचराम गेंढरे ने कथित तौर पर अपने पड़ोसी पुष्पा चेतन के चार वर्षीय पुत्र हर्ष कुमार चेतन को घुमाने के बहाने अगवा कर लिया। जब बच्चा घर नहीं लौटा, तो रायपुर के उरला थाने में अपराध संख्या 140/2022 के तहत गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई गई। गहन जांच के बाद पुलिस को बेमेतरा जिले के नेवनारा और अकोली खार इलाके में बच्चे का अधजला शव मिला।
अभियोजन पक्ष ने तर्क दिया कि आरोपी ने व्यक्तिगत प्रतिशोध और पीड़ित की मां के प्रति एकतरफा प्रेम की अस्वीकृति से आहत होकर इस क्रूरतम अपराध को अंजाम दिया। आरोपी ने मासूम बच्चे को आग के हवाले कर उसकी हत्या कर दी। ट्रायल कोर्ट ने उसे भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 363 (अपहरण), 364 (हत्या के इरादे से अपहरण) और 302 (हत्या) के तहत दोषी ठहराया और उसे मृत्यु दंड दिया, जिसे हाईकोर्ट की पुष्टि के लिए भेजा गया।
कानूनी मुद्दे
आपराधिक अपील संख्या 151/2025 की सुनवाई के दौरान, बचाव पक्ष के वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक सिन्हा और अधिवक्ता अरविंद पांडा ने तर्क दिया कि इस मामले में कोई प्रत्यक्षदर्शी नहीं था और पूरी कार्यवाही परिस्थितिजन्य साक्ष्यों पर आधारित थी। उन्होंने गवाहों के बयानों में असंगतियों को उजागर किया और सीसीटीवी फुटेज व फॉरेंसिक साक्ष्यों की विश्वसनीयता पर सवाल उठाया। उनका कहना था कि भले ही आरोपी दोषी पाया जाए, लेकिन यह मामला ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ की श्रेणी में नहीं आता, इसलिए मौत की सजा उचित नहीं है।
दूसरी ओर, राज्य की ओर से उप महाधिवक्ता शशांक ठाकुर ने तर्क दिया कि अभियोजन पक्ष ने परिस्थितिजन्य साक्ष्यों की एक ठोस श्रृंखला प्रस्तुत की, जिसमें अंतिम बार पीड़ित को आरोपी के साथ देखे जाने की गवाही, फॉरेंसिक रिपोर्ट, कॉल रिकॉर्ड और आरोपी का आचरण शामिल था। उन्होंने इस अपराध की नृशंसता को रेखांकित करते हुए कहा कि मासूम बच्चे को जीवित जलाने जैसा क्रूरतम कृत्य सबसे कठोर सजा की मांग करता है।
हाईकोर्ट की टिप्पणियां
अपने विस्तृत निर्णय में हाईकोर्ट ने मृत्यु दंड देने से पहले अपराध की गंभीरता और आरोपी की पुनर्वास की संभावना सहित सभी कारकों को संतुलित करने की आवश्यकता पर जोर दिया। अदालत ने बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य (1980) और मच्छी सिंह बनाम पंजाब राज्य (1983) के सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसलों का हवाला दिया, जिनमें ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ सिद्धांत की व्याख्या की गई थी।
न्यायालय की मुख्य टिप्पणियां:
- अपराध की क्रूरता – अदालत ने माना कि इस हत्या में जानबूझकर एक मासूम बच्चे को जलाया गया, जिससे उसे असहनीय पीड़ा हुई। यह अपराध अमानवीयता की पराकाष्ठा है।
- सामाजिक प्रभाव – फैसले में इस बात को रेखांकित किया गया कि इस तरह के अपराध समाज में भय और असुरक्षा का वातावरण बनाते हैं, जिससे इस पर कड़ी सजा आवश्यक हो जाती है।
- पुनर्वास की संभावना – अदालत ने आरोपी के व्यक्तित्व और व्यवहार का मूल्यांकन किया, लेकिन उसमें सुधार की कोई संभावना नहीं पाई।
- सजा की उपयुक्तता – अदालत ने स्पष्ट किया कि इस अपराध की गंभीरता को देखते हुए आजीवन कारावास अपर्याप्त होगा और केवल मृत्युदंड ही न्याय की भावना को पूरा कर सकता है।
फैसले में हाईकोर्ट ने कहा:
“न्याय और दया के बीच संतुलन बनाए रखना आवश्यक है। न्यायालय को मृत्यु दंड हल्के में नहीं देना चाहिए, लेकिन जब एक मासूम बच्चे के साथ इस हद तक बर्बरता की जाती है, तो नरमी की कोई गुंजाइश नहीं रहती।”
अंतिम निर्णय
हाईकोर्ट ने निचली अदालत के निर्णय की पुष्टि करते हुए आरोपी की अपील खारिज कर दी। अदालत ने पाया कि यह मामला ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ की श्रेणी में आता है और मृत्युदंड ही एकमात्र उचित सजा है। हालांकि, अदालत ने निर्देश दिया कि फांसी की सजा को उच्च न्यायालय के अनुमोदन और संभावित राष्ट्रपति दया याचिका के प्रावधानों के तहत आगे बढ़ाया जाएगा।
यह फैसला न्यायपालिका के उस दृष्टिकोण को दोहराता है कि यद्यपि मृत्युदंड केवल दुर्लभतम मामलों में दिया जाना चाहिए, लेकिन विशेष रूप से बच्चों के खिलाफ अत्यधिक क्रूर अपराधों के लिए कड़ी से कड़ी सजा दी जानी चाहिए।
