रायपुर: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 106 के तहत बिना ठोस साक्ष्य और पुष्टिकरण के ‘लास्ट सीन’ थ्योरी को लागू नहीं किया जा सकता। यह फैसला मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति रविंद्र कुमार अग्रवाल की खंडपीठ ने सुनाया, जिसमें एक नाबालिग के अपहरण और हत्या के आरोप में दोषी ठहराए गए तीन व्यक्तियों को सबूतों की अपर्याप्तता के आधार पर बरी कर दिया गया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला छत्तीसगढ़ के बलरामपुर जिले के रामानुजगंज में 14 वर्षीय किशोर ईशान के अपहरण और हत्या से जुड़ा था। 4 सितंबर 2018 को पीड़ित के पिता, अलीमुद्दीन सिद्दीकी ने उसके लापता होने की रिपोर्ट दर्ज कराई थी। प्रारंभ में इसे गुमशुदगी का मामला माना गया, लेकिन बाद में इसे भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 363 (अपहरण) के तहत अपहरण का मामला बना दिया गया।
7 सितंबर 2018 को ईशान का शव कनकपुर जंगल में बरामद हुआ, जिससे मामले की गंभीरता बढ़ गई। इसके बाद पुलिस ने मोहम्मद इसरार अहमद उर्फ राजा (20), मोहम्मद साहिल बारी (18) और मोहम्मद शमशेर खान (19) को गिरफ्तार कर लिया। उन पर धारा 120-बी (साजिश), 363 (अपहरण), 302 (हत्या) और 201 (सबूत नष्ट करने) के तहत आरोप लगाए गए।

रामानुजगंज के प्रथम अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने 12 नवंबर 2021 को तीनों आरोपियों को दोषी ठहराते हुए उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।
मुख्य कानूनी मुद्दे और कोर्ट की टिप्पणियां
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने क्रिमिनल अपील नंबर 1579/2021 और अन्य संबंधित अपीलों की सुनवाई करते हुए अभियोजन पक्ष के तर्कों की समीक्षा की, जिसमें मुख्य रूप से परिस्थितिजन्य साक्ष्यों (circumstantial evidence), ‘लास्ट सीन’ थ्योरी और मृतक के शव की बरामदगी पर जोर दिया गया था।
‘लास्ट सीन’ थ्योरी पर कोर्ट की टिप्पणियां
1. ‘लास्ट सीन’ साक्ष्य की कमजोरी:
- अभियोजन पक्ष ने PW/4 इब्रान, PW/9 मुमताज अंसारी और PW/18 अबू बकर को गवाह के रूप में प्रस्तुत किया, जिन्होंने आरोप लगाया कि उन्होंने मृतक को आरोपियों के साथ आखिरी बार देखा था।
- हालांकि, उनकी गवाही आपस में मेल नहीं खाती थी और हत्या के समय से उनकी कथित आखिरी मुलाकात के बीच काफी अंतर था।
- कोर्ट ने निजाम बनाम राजस्थान राज्य (2016) मामले का हवाला देते हुए कहा कि ‘लास्ट सीन’ साक्ष्य निर्णायक और ठोस होना चाहिए, जिससे कोई अन्य संभावना न बची हो।
2. परिस्थितिजन्य साक्ष्यों की कमजोर कड़ी:
- सुप्रीम कोर्ट के फैसले शरद बर्डीचंद सरडा बनाम महाराष्ट्र राज्य (1984) का हवाला देते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य की पूरी श्रृंखला स्थापित होनी चाहिए, जो अभियुक्तों के दोष को सिद्ध करे।
- हाईकोर्ट ने पाया कि मृतक के आखिरी बार देखे जाने और उसके शव मिलने के बीच लंबे समय का अंतर था, जिससे अभियोजन की दलील कमजोर हो गई।
3. शव की बरामदगी का विवाद:
- अभियोजन पक्ष का दावा था कि आरोपियों की निशानदेही पर शव बरामद हुआ।
- बचाव पक्ष ने इस तर्क का विरोध करते हुए कहा कि शव एक खुले क्षेत्र में मिला, जहां गांव के अन्य लोग भी पहुंच सकते थे, जिससे अभियोजन की दलील कमजोर पड़ गई।
- PW/5 रघु राय और PW/6 मोहम्मद शमीम की गवाही भी विरोधाभासी थी, जिससे इस सबूत की विश्वसनीयता पर सवाल उठे।
4. मकसद (Motive) साबित करने में विफलता:
- अभियोजन पक्ष ने तर्क दिया कि आरोपी फिरौती के लिए हत्या की साजिश में शामिल थे।
- हालांकि, कोर्ट ने पाया कि फिरौती की कोई ठोस मांग का सबूत नहीं था।
- हाईकोर्ट ने कहा कि यदि फिरौती वाकई मकसद होता, तो आरोपी पीड़ित को जिंदा रखते, जब तक कि उनकी मांगें पूरी न हो जातीं।
कोर्ट का निर्णय और स्थापित नज़ीर (Precedent Set)
ट्रायल कोर्ट के फैसले को पलटते हुए हाईकोर्ट ने कहा:
“जब निर्णायक ‘लास्ट सीन’ साक्ष्य की अनुपस्थिति हो और कथित अंतिम दर्शन और शव की बरामदगी के बीच समय का महत्वपूर्ण अंतर हो, तो भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 106 के तहत बिना पुष्टिकरण के ‘लास्ट सीन’ थ्योरी लागू नहीं की जा सकती।”
इसके अलावा, कोर्ट ने कहा कि “जहां दो संभावित निष्कर्ष हों, वहां आरोपी के पक्ष में फैसला दिया जाना चाहिए।”
अंततः, हाईकोर्ट ने तीनों आरोपियों को दोषमुक्त करार देते हुए तत्काल रिहाई का आदेश दिया।