भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह स्पष्ट किया है कि साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 27 के अंतर्गत ‘तथ्य’ केवल भौतिक वस्तुओं तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें आरोपी का ज्ञान भी शामिल होता है। न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने यह निर्णय “Md. Bani Alam Mazid @ Dhan बनाम असम राज्य” मामले में सुनाया, जिसमें परिस्थितिजन्य साक्ष्यों में कमियों के कारण अपीलकर्ता को बरी कर दिया गया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 22 अगस्त 2003 की घटना से संबंधित है, जब 16 वर्षीय नाबालिग लड़की मर्जिना बेगम को कथित रूप से अपीलकर्ता Md. Bani Alam Mazid और सह-आरोपी जहांगीर अली द्वारा अगवा कर लिया गया था। पीड़िता के पिता अमजद अली ने 26 अगस्त 2003 को हाजो पुलिस स्टेशन, असम में शिकायत दर्ज कराई। 27 अगस्त 2003 को पीड़िता का शव पांडु रेलवे ट्रैक के पास मिला।
निचली अदालत ने अपीलकर्ता को भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 366(A) (अपहरण), 302 (हत्या) और 201 (साक्ष्य नष्ट करने) के तहत दोषी ठहराया और आजीवन कारावास की सजा सुनाई। बाद में, गौहाटी उच्च न्यायालय ने हत्या और साक्ष्य नष्ट करने के आरोप में दोषसिद्धि को बरकरार रखा लेकिन अपहरण के आरोप से बरी कर दिया।
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महत्वपूर्ण कानूनी मुद्दे
सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में तीन प्रमुख बिंदुओं पर विचार किया:
- अंतिम बार साथ देखे जाने (Last-Seen Theory) की विश्वसनीयता, खासकर तब जब अपराध और अंतिम बार देखे जाने के बीच लंबा समय अंतराल हो।
- पुलिस की मौजूदगी में दिए गए अतिरिक्त-न्यायिक स्वीकृतियों (Extra-Judicial Confession) की स्वीकार्यता।
- साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के तहत ‘तथ्य’ की परिभाषा—क्या यह केवल भौतिक वस्तुओं तक सीमित है, या आरोपी के ज्ञान को भी शामिल करता है?
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां
सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 27 की व्याख्या करते हुए कहा:
“साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के तहत ‘तथ्य’ की खोज तब होती है जब आरोपी द्वारा दी गई सूचना यह दर्शाती है कि उसे किसी वस्तु या स्थान के अस्तित्व की जानकारी थी।”
अदालत ने 1947 में दिए गए “Pulukuri Kottaya बनाम King-Emperor” के फैसले का हवाला दिया, जिसमें स्पष्ट किया गया था कि धारा 27 पुलिस हिरासत में किए गए स्वीकारोक्ति पर रोक का अपवाद है, लेकिन केवल उस हिस्से को स्वीकार्य बनाती है जो किसी नई खोज की ओर ले जाए।
अंतिम बार साथ देखे जाने (Last-Seen Theory) पर न्यायालय ने कहा:
“आरोपी को अंतिम बार मृतक के साथ देखे जाने और अपराध की खोज के बीच का समय अंतराल महत्वपूर्ण कारक होता है। यदि यह अंतराल अधिक है, तो ‘अंतिम बार साथ देखे जाने’ का साक्ष्य कमजोर हो जाता है।”
अतिरिक्त-न्यायिक स्वीकृतियों पर न्यायालय ने कहा:
“पुलिस की मौजूदगी में दिए गए अतिरिक्त-न्यायिक स्वीकृतियों को सतर्कता से देखा जाना चाहिए। यदि यह जबरन या दबाव में ली गई हो, तो इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।”
परिस्थिजन्य साक्ष्यों के महत्व पर न्यायालय ने टिप्पणी की:
“परिस्थिजन्य साक्ष्यों पर आधारित मामलों में अभियोजन पक्ष को घटनाओं की एक अटूट श्रृंखला स्थापित करनी होती है। यदि इस श्रृंखला में कोई भी कड़ी कमजोर पड़ती है, तो संदेह का लाभ आरोपी को दिया जाना चाहिए।”
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय
गवाहों के बयानों में विरोधाभास और अभियोजन पक्ष द्वारा ₹60,000 की नकद राशि की बरामदगी में विफलता को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय ने कहा कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य पर्याप्त नहीं थे।
“परिस्थिजन्य साक्ष्यों पर आधारित मामलों में, मकसद (Motive) की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण होती है। यदि अभियोजन पक्ष आरोपी के अपराध का स्पष्ट मकसद स्थापित नहीं कर पाता, तो यह आरोपी के पक्ष में जाता है।”
इस आधार पर, सुप्रीम कोर्ट ने गौहाटी उच्च न्यायालय और सत्र न्यायालय के फैसलों को रद्द करते हुए अपीलकर्ता को संदेह का लाभ दिया और उसकी तत्काल रिहाई का आदेश दिया।
मामले का विवरण
- मामले का शीर्षक: Md. Bani Alam Mazid @ Dhan बनाम असम राज्य
- मामला संख्या: आपराधिक अपील संख्या 1649/2011
- पीठ: न्यायमूर्ति अभय एस. ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां