अस्पष्ट आरोप चुनाव रद्द करने का आधार नहीं: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गुरुद्वारा चुनाव को सही ठहराया

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने श्री गुरु सिंह सभा, गुरुद्वारा रोड, नाका हिंडोला, लखनऊ के अध्यक्ष पद के चुनाव को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर दिया। अदालत ने प्रतिवादियों द्वारा उठाई गई प्राथमिक आपत्तियों को स्वीकार किया और यह स्पष्ट किया कि “किसी विधिक प्रावधान के विरुद्ध प्रतिषेध (एस्टॉपल) लागू नहीं हो सकता।” इसके आधार पर, याचिकाकर्ता के चुनावी अनियमितताओं के दावे को खारिज कर दिया गया।

मामले की पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता सतपाल सिंह ने प्रतिवादी संख्या-4 के अध्यक्ष चुने जाने को चुनौती दी थी। उन्होंने चुनाव रद्द करने की मांग की और अदालत से अनुरोध किया कि वह सक्षम प्राधिकारी को चुनावी विवाद को सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन अधिनियम, 1860 की धारा 25 के तहत संदर्भित करने का निर्देश दे। इसके साथ ही, उन्होंने विवाद के समाधान तक एक प्रशासक नियुक्त करने की मांग की।

कानूनी मुद्दे

इस मामले में निम्नलिखित कानूनी बिंदुओं पर बहस हुई:

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  1. महत्वपूर्ण तथ्यों का छुपाया जाना – प्रतिवादियों का तर्क था कि याचिकाकर्ता ने चुनाव में अपनी स्वयं की भागीदारी का खुलासा नहीं किया, जिससे उनकी वैधानिक स्थिति (लोकस स्टैंडी) पर प्रश्न उठता है।
  2. निर्दिष्ट तर्कों की कमी – याचिका में सोसाइटीज रजिस्ट्रेशन अधिनियम, 1860 की धारा 25 के तहत आवश्यक कानूनी आधार स्पष्ट रूप से प्रस्तुत नहीं किए गए थे।
  3. न्यायिक मिसाल और सरकारी नियम – याचिकाकर्ता ने 2016 के एक न्यायिक निर्णय का हवाला दिया, जिसमें सरकारी कर्मचारियों को सोसायटी के प्रशासन से दूर रहने का निर्देश दिया गया था। लेकिन अदालत ने पाया कि यह मामला लागू नहीं होता, क्योंकि प्रतिवादी डॉ. राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान के कर्मचारी थे, जो एक वैधानिक निकाय है।
  4. आवश्यक पक्षकारों को शामिल न करना – याचिका में पूरी कार्यकारिणी के चुनाव को चुनौती दी गई थी, लेकिन निर्वाचित 15 सदस्यों को पक्षकार नहीं बनाया गया, जिससे याचिका अपूर्ण हो गई।
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अदालत का निर्णय और टिप्पणियां

इस मामले की सुनवाई न्यायमूर्ति मनीष माथुर की एकल पीठ ने की। अदालत ने निम्नलिखित महत्वपूर्ण निष्कर्ष दिए:

  1. कानून के विरुद्ध कोई प्रतिषेध नहीं – अदालत ने कहा कि चुनाव चुनौती देना एक विधिक अधिकार है और इसे प्रतिषेध के आधार पर रोका नहीं जा सकता, भले ही याचिकाकर्ता स्वयं चुनाव में भाग ले चुके हों।
  2. धारा 25 की शर्तों का पालन नहीं हुआ – याचिकाकर्ता यह साबित करने में असफल रहे कि चुनाव प्रक्रिया में कोई गड़बड़ी हुई थी। अदालत ने कहा, “चुनावी प्रक्रिया पर शिकायतें स्पष्ट और सटीक होनी चाहिए; केवल अस्पष्ट आरोप न्यायिक हस्तक्षेप का आधार नहीं हो सकते।”
  3. न्यायिक मिसाल अप्रासंगिक – याचिकाकर्ता द्वारा प्रस्तुत 2016 का निर्णय केंद्र सरकार के कर्मचारियों पर लागू था, जबकि प्रतिवादी राज्य के एक स्वायत्त संस्थान से जुड़े थे, जिससे याचिकाकर्ता का तर्क अस्वीकार कर दिया गया।
  4. आवश्यक पक्षकारों को शामिल न करना – अदालत ने कहा कि निर्वाचित सदस्यों को पक्षकार न बनाने से याचिका वैध नहीं रह जाती।
  5. डिप्टी रजिस्ट्रार का निर्णय सही – अदालत ने पाया कि डिप्टी रजिस्ट्रार ने धारा 25(1) के तहत चुनाव को चुनौती देने की याचिका को सही कारणों से खारिज किया, और यह स्पष्ट किया कि यदि आम निकाय के एक-चौथाई सदस्य चाहें तो वे चुनाव को चुनौती दे सकते हैं।
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अंतिम निर्णय

हाईकोर्ट ने प्रारंभिक आपत्तियों को सही ठहराते हुए याचिका को खारिज कर दिया और विवादित आदेश में कोई हस्तक्षेप नहीं किया। अदालत ने दोहराया कि चुनावी विवादों को विधिक प्रावधानों के तहत ही चुनौती दी जानी चाहिए, और केवल अस्पष्ट आरोपों के आधार पर न्यायिक हस्तक्षेप की अनुमति नहीं दी जा सकती।

यह मामला रिट – सी संख्या 11104/2024 से संबंधित था। याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता आर.एस. पांडेय और अधिवक्ता वीरेंद्र भट्ट ने पैरवी की, जबकि प्रतिवादियों की ओर से सरकारी अधिवक्ता आनंद मणि त्रिपाठी, गौरव मेहरोत्रा और विवेक कुमार राय ने पक्ष रखा।

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