क्या परिवार न्यायालय विवाहेतर संबंध से उत्पन्न पितृत्व के दावे की सुनवाई कर सकता है? सुप्रीम कोर्ट ने कहा

नई दिल्ली, 28 जनवरी 2025 – सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि परिवार न्यायालय विवाहेतर संबंध से उत्पन्न पितृत्व के दावे की सुनवाई नहीं कर सकता। अदालत ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 112 के तहत वैध विवाह के दौरान जन्मे बच्चे की वैधता (legitimacy) ही पितृत्व (paternity) का निर्धारण करती है, जब तक कि स्पष्ट प्रमाणों के साथ विपरीत सिद्ध न किया जाए।

यह फैसला इवान राथिनम बनाम मिलन जोसेफ (क्रिमिनल अपील नंबर 413/2025) में आया, जिसमें केरल उच्च न्यायालय ने एक रखरखाव याचिका (maintenance petition) को पुनर्जीवित करने की अनुमति दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय को पलटते हुए कहा कि पहले से वैध ठहराए गए बच्चे के पितृत्व पर दोबारा विचार नहीं किया जा सकता।

मामले की पृष्ठभूमि

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इस विवाद में याचिकाकर्ता (मिलन जोसेफ) ने दावा किया कि वह उत्तरदाता (इवान राथिनम) का जैविक पुत्र है, हालांकि उसका जन्म उसकी मां की वैध शादी के दौरान हुआ था। उसकी मां ने विवाह के दौरान इवान राथिनम के साथ विवाहेतर संबंध होने का दावा किया और जन्म प्रमाण पत्र में उनके नाम की प्रविष्टि कराने की कोशिश की।

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पहले के कई न्यायिक निर्णयों में इस दावे को अस्वीकृत कर दिया गया और यह तय किया गया कि चूंकि जोसेफ की मां और उनके पति के बीच वैध विवाह था और वे साथ रह रहे थे, इसलिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 112 के तहत जोसेफ को कानूनी रूप से अपने मां के पति का पुत्र माना जाएगा

हालांकि, 2015 में याचिकाकर्ता ने एक बार फिर परिवार न्यायालय में रखरखाव के लिए याचिका दायर की और कहा कि उसे आर्थिक कठिनाइयों और स्वास्थ्य समस्याओं के कारण वित्तीय सहायता की जरूरत है। परिवार न्यायालय ने इसे स्वीकार करते हुए पितृत्व के पुनः परीक्षण की अनुमति दी, जिसे केरल उच्च न्यायालय ने भी सही ठहराया।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला – प्रमुख बिंदु

  1. वैधता ही पितृत्व का निर्धारण करती है – जब तक गैर-प्रवेश (non-access) साबित नहीं होता, विवाह के दौरान जन्मा बच्चा उस पति का संतान माना जाएगा
  2. डीएनए परीक्षण का दुरुपयोग नहीं हो सकता – अदालत ने कहा कि डीएनए परीक्षण केवल तब ही किया जा सकता है जब पति-पत्नी के बीच गैर-प्रवेश का मजबूत प्रमाण हो, अन्यथा यह निजता और प्रतिष्ठा का उल्लंघन होगा।
  3. परिवार न्यायालय दोबारा पितृत्व की सुनवाई नहीं कर सकता – एक बार जब वैधता का निर्धारण हो जाता है, तो परिवार न्यायालय इसे रखरखाव के मामले के बहाने पुनः नहीं खोल सकता।
  4. रखरखाव याचिका का पुनर्जीवन अवैध – सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि परिवार न्यायालय द्वारा 2015 में मामले को फिर से खोलना गलत था, क्योंकि पहले दिए गए आदेश में स्पष्ट रूप से इसकी पुनर्समीक्षा की शर्त पूरी नहीं हुई थी
  5. पुनः मुकदमा दायर करना res judicata का उल्लंघन – सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि एक बार किसी मामले का निपटारा हो जाने के बाद, दोबारा मुकदमा दायर करना न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग है
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न्यायिक और सामाजिक प्रभाव

इस फैसले ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 112 की कानूनी संकल्पना को मजबूत किया है, जिसमें विवाह के दौरान जन्मे बच्चे को वैध माना जाता है। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि पितृत्व विवाद को पुनर्जीवित कर वित्तीय लाभ प्राप्त करने की प्रवृत्ति को रोकने की जरूरत है।

इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्तिगत निजता और गरिमा की रक्षा के महत्व को दोहराते हुए कहा कि डीएनए परीक्षण सिर्फ आरोपों के आधार पर नहीं किया जा सकता।

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