बलात्कार के मामलों में अभियोक्ता का बयान सर्वोच्च होता है, लेकिन इसे हमेशा पूरी तरह सत्य नहीं माना जा सकता: इलाहाबाद हाईकोर्ट

अभियोक्ता की गवाही की पवित्रता और न्यायिक जांच की आवश्यकता के बीच संतुलन बिठाने वाले एक महत्वपूर्ण फैसले में, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक हाई-प्रोफाइल बलात्कार मामले में एक आरोपी को जमानत दे दी। न्यायमूर्ति संजय कुमार सिंह ने मामले की सुनवाई की और इस बात पर जोर दिया कि बलात्कार के मामलों में अभियोक्ता का बयान सबसे महत्वपूर्ण होता है, लेकिन उचित मूल्यांकन के बिना इसे पूरी तरह सत्य नहीं माना जा सकता।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला मई 2024 में एक विवाहित महिला द्वारा दर्ज कराई गई एफआईआर से शुरू हुआ, जिसमें आवेदक पर आईपीसी और आईटी अधिनियम की विभिन्न धाराओं के तहत बलात्कार, आपराधिक धमकी और धोखाधड़ी सहित कई अपराधों का आरोप लगाया गया था। पीड़िता ने आरोप लगाया कि आरोपी ने उसे सरकारी नौकरी दिलाने के बहाने उसका शोषण किया। उसने दावा किया कि आरोपी ने शादी का झूठा वादा करके उसे शारीरिक संबंध बनाने के लिए मजबूर किया, अक्सर उसके साथ मारपीट की और यहां तक ​​कि उसके 5 लाख रुपये के सोने के गहने भी हड़प लिए।

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एफआईआर में अन्य व्यक्तियों को भी आरोपित किया गया है, जिन्होंने पीड़िता के साथ मारपीट की और उसे धमकाया, जब वह अपना सामान वापस लेने के लिए आरोपी के घर गई थी।

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चर्चा किए गए कानूनी मुद्दे

जमानत याचिका महत्वपूर्ण कानूनी सवालों के इर्द-गिर्द घूमती है:

1. सहमति बनाम जबरदस्ती: क्या पार्टियों के बीच यौन संबंध सहमति से थे या शादी और नौकरी की सुरक्षा के वादे की आड़ में जबरदस्ती किए गए थे।

2. एफआईआर दर्ज करने में देरी: बचाव पक्ष ने शिकायत दर्ज करने में 18 महीने से अधिक की देरी के बारे में सवाल उठाए।

3. पीड़िता की गवाही की विश्वसनीयता: अदालत ने अभियोजन पक्ष की गवाही की प्रधानता को साक्ष्य के वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन के साथ संतुलित करने की आवश्यकता पर विचार किया।

प्रस्तुत तर्क

आवेदक के लिए:

बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि विवाहित महिला होने के नाते पीड़िता अपने कार्यों के निहितार्थों को पूरी तरह से समझने में सक्षम थी। यह तर्क दिया गया कि संबंध सहमति से था और आपसी अंतरंगता पर आधारित था, जैसा कि उनकी चैट से पता चलता है। बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि एफआईआर दर्ज करने में देरी पीड़िता द्वारा अपने पति को इस संबंध के बारे में पता चलने पर खुद को बचाने के प्रयास से प्रेरित थी। इसके अलावा, बचाव पक्ष ने आरोपी के लिए कोई आपराधिक पृष्ठभूमि नहीं होने का दावा किया और न्यायिक प्रक्रिया में उसके सहयोग का आश्वासन दिया।

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अभियोजन पक्ष के लिए:

जमानत याचिका का विरोध करते हुए, अभियोजन पक्ष और पीड़िता के वकील ने तर्क दिया कि आरोपी ने पीड़िता की मासूमियत का फायदा उठाया, उसे शारीरिक संबंध बनाने के लिए झूठे वादे किए। अभियोजन पक्ष ने कथित धमकियों और वायरल तस्वीरों को उजागर किया, और अदालत से आरोपों की गंभीरता को देखते हुए जमानत देने से इनकार करने का आग्रह किया।

अदालत की टिप्पणियां और निर्णय

न्यायमूर्ति संजय कुमार सिंह ने मामले की सूक्ष्म प्रकृति का हवाला देते हुए आवेदक को जमानत दे दी। अपने आदेश में उन्होंने टिप्पणी की:

“बलात्कार के मामलों में अभियोक्ता का बयान महत्वपूर्ण महत्व रखता है और प्राथमिक विचार का हकदार है। हालांकि, यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि यह हमेशा पूरी तरह से सत्य है। दोनों पक्षों की परिस्थितियों, साक्ष्य और आचरण का आलोचनात्मक मूल्यांकन करना महत्वपूर्ण है।”

अदालत ने पाया कि अभियोक्ता ने विवाहित होने के बावजूद आवेदक के साथ लंबे समय तक संबंध बनाए रखा। अदालत ने उसके कथन में असंगतता पाई, इस बात पर जोर देते हुए कि घटनाओं की रिपोर्ट करने में उसकी देरी ने अभियोजन पक्ष के जबरदस्ती के दावों को कमजोर कर दिया।

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जमानत देते समय, अदालत ने आवेदक के मुकदमे में सहयोग सुनिश्चित करने और सबूतों के साथ छेड़छाड़ को रोकने के लिए कड़ी शर्तें लगाईं। आवेदक को एक व्यक्तिगत बांड और दो जमानतदार प्रस्तुत करने और पीड़ित या गवाहों के साथ किसी भी तरह के संपर्क से बचने का निर्देश दिया गया था।

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