भारत के सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी व्यक्तियों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करते हुए एक महत्वपूर्ण निर्णय में मद्रास हाई कोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें एक दशक पुराने मामले में पुनः जांच का निर्देश दिया गया था। यह मामला एक चार वर्षीय बच्ची के कथित अपहरण और हत्या से संबंधित था। सुप्रीम कोर्ट ने डबल जियोपार्डी (Double Jeopardy) के सिद्धांत को बनाए रखते हुए कहा कि एक बार निर्दोष साबित हो चुके व्यक्ति को उसी अपराध के लिए फिर से जांच और मुकदमे का सामना नहीं करना पड़ेगा, भले ही प्रारंभिक जांच में कुछ कमियां क्यों न रही हों।
आपराधिक अपील (एसएलपी (सीआरएल) संख्या 8700/2023 से उत्पन्न) मामले का फैसला न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति सी.टी. रविकुमार की पीठ ने किया, जिन्होंने आपराधिक न्यायशास्त्र में निर्दोषता की धारणा के मूलभूत सिद्धांत को रेखांकित किया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला तमिलनाडु में जून 2013 में चार वर्षीय बच्ची के लापता होने और हत्या से संबंधित था। अपीलकर्ता पी. मणिकंदन, जो बच्ची के परिवार का परिचित था, पर आरोप लगाया गया था कि उसने गांधी इंटरनेशनल मैट्रिकुलेशन स्कूल से बच्ची का अपहरण किया, उसकी हत्या की, और शव को एक कुएं में फेंक दिया। प्रारंभिक जांच के आधार पर मणिकंदन के खिलाफ आईपीसी की धारा 364ए और 302 के तहत आरोप लगाए गए थे, और 2018 में ट्रायल कोर्ट ने उसे मौत की सजा सुनाई।
हालांकि, अपील पर मद्रास हाई कोर्ट ने सबूतों की कमी और प्रक्रिया में खामियों का हवाला देते हुए उसी वर्ष आरोपी को बरी कर दिया। इसके बावजूद हाई कोर्ट ने केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) को मामले की पुनः जांच का आदेश दिया ताकि प्रारंभिक जांच में हुई गलतियों को सुधारा जा सके। इस आदेश के आधार पर आरोपी के खिलाफ नए आरोप और कार्यवाही शुरू हुई, जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई।
मुख्य कानूनी मुद्दे
सुप्रीम कोर्ट ने निम्नलिखित दो महत्वपूर्ण सवालों पर विचार किया:
1. पुनः जांच का अधिकार: क्या हाईकोर्ट, दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) की धारा 386(बी)(i) के तहत अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए बरी किए गए व्यक्ति के खिलाफ पुनः जांच का आदेश दे सकता है?
2. डबल जियोपार्डी और संवैधानिक सुरक्षा: क्या पुनः जांच और उसके बाद की कार्यवाही संविधान के अनुच्छेद 20(2) और Cr.P.C. की धारा 300 के तहत आरोपी को प्राप्त सुरक्षा का उल्लंघन करती है, जो किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार मुकदमा चलाने या सजा देने से रोकती है?
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां
सुप्रीम कोर्ट ने पुनः जांच के खिलाफ स्पष्ट निर्णय दिया और कहा कि हाई कोर्ट का निर्देश “कानून के अधिकार के बिना” था। न्यायमूर्ति संजय करोल ने पीठ की ओर से लिखते हुए कहा:
– पुनः जांच पर: “पुनः जांच पुनः परीक्षण से अलग है और इसे Cr.P.C. की धारा 386(बी)(i) के तहत लागू नहीं किया जा सकता। जबकि न्याय में चूक को रोकने के लिए अपवादस्वरूप पुनः परीक्षण का आदेश दिया जा सकता है, बरी होने के बाद पुनः जांच का आदेश, खासकर जब इसका कोई कानूनी प्रावधान न हो, नहीं दिया जा सकता।”
– डबल जियोपार्डी पर: सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 20(2) और Cr.P.C. की धारा 300 के तहत आरोपी के संरक्षण को रेखांकित किया, जो किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार अभियोजन से बचाता है। कोर्ट ने कहा, “दोषपूर्ण जांच के कारण उत्पन्न होने वाले लाभ को न्याय प्रणाली की अक्षमता या अयोग्यता के नाम पर बलिदान नहीं किया जा सकता।”
पीठ ने हाई कोर्ट की आलोचना करते हुए कहा कि उसने कानूनी सिद्धांतों के बजाय अप्रासंगिक विचारों पर भरोसा किया। कोर्ट ने कहा, “निर्दोषता की धारणा, जब तक दोष से परे संदेह से साबित न हो जाए, केवल प्रक्रियात्मक कमियों के कारण समझौता नहीं की जा सकती।”
मामले का परिणाम
सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के पुनः जांच के आदेश और उससे उत्पन्न सभी कार्यवाहियों को रद्द कर दिया, जिसमें CBI द्वारा लगाए गए आरोप भी शामिल थे। कोर्ट ने अपीलकर्ता की बरी होने की स्थिति को बहाल किया और डबल जियोपार्डी के खिलाफ उसके अधिकार को पुनः स्थापित किया। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि न्याय प्रणाली में खामियों के बावजूद, मौलिक अधिकार और न्याय प्रक्रिया सर्वोपरि रहेंगे।