गुवाहाटी हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में, आरोप तय करने में प्रक्रियागत खामियों के कारण यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पोक्सो) अधिनियम, 2012 की धारा 4(2) के तहत लालडिंग्लुआ की दोषसिद्धि और 20 साल की सजा को रद्द कर दिया। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि धारा 4 की उपधारा को निर्दिष्ट किए बिना आरोप तय करना कठोर सजा को अस्वीकार्य बनाता है।
यह फैसला जस्टिस माइकल ज़ोथनखुमा और जस्टिस मार्ली वैंकुंग ने 20 नवंबर, 2024 को सुनाया।
केस बैकग्राउंड
यह मामला 23 दिसंबर, 2021 को दर्ज की गई एक घटना से उपजा है, जिसमें मिज़ोरम के थिंगडॉल में अपने घर पर अपीलकर्ता लालडिंग्लुआ द्वारा कथित तौर पर छह साल की बच्ची का यौन उत्पीड़न किया गया था। पीड़िता की माँ ने उसी दिन एक प्राथमिकी दर्ज की, और अपीलकर्ता पर POCSO अधिनियम की धारा 4 के तहत आरोप लगाया गया।
अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायालय, फास्ट ट्रैक कोर्ट, कोलासिब में सुनवाई के बाद, लालडिंग्लुआ को दोषी ठहराया गया और 25 जुलाई, 2023 को 20 वर्ष के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। यह सजा POCSO अधिनियम की धारा 4(2) के अनुरूप है, जिसमें 16 वर्ष से कम आयु के बच्चे पर यौन उत्पीड़न के लिए न्यूनतम 20 वर्ष के कारावास का प्रावधान है।
हाईकोर्ट द्वारा उठाए गए मुद्दे
गुवाहाटी हाईकोर्ट ने कई महत्वपूर्ण खामियों का हवाला देते हुए ट्रायल कोर्ट के फैसले और सजा को खारिज कर दिया:
1. आरोप तय करने में अस्पष्टता:
हाईकोर्ट ने नोट किया कि अपीलकर्ता के खिलाफ आरोप POCSO अधिनियम की धारा 4 के तहत तय किए गए थे, बिना यह निर्दिष्ट किए कि यह उपधारा 4(1) या 4(2) से संबंधित है। न्यायमूर्ति ज़ोथनखुमा ने कहा कि इस विशिष्टता की कमी ने आरोपी को धारा 4(2) के तहत कठोर दंड के खिलाफ अपना बचाव तैयार करने का उचित अवसर नहीं दिया।
न्यायालय ने नानक चंद बनाम पंजाब राज्य (1955 एससीसी ऑनलाइन एससी 52) में सर्वोच्च न्यायालय के उदाहरण का हवाला दिया, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि सटीक आरोप तय न करने से मुकदमा प्रभावित हो सकता है।
2. बाल गवाह की गवाही का उचित मूल्यांकन करने में विफलता:
ट्रायल कोर्ट यह सुनिश्चित करने के लिए प्रारंभिक जांच करने में भी विफल रहा कि छह वर्षीय पीड़िता कार्यवाही की प्रकृति को समझती है और तर्कसंगत और विश्वसनीय गवाही दे सकती है। प्रदीप बनाम हरियाणा राज्य (एआईआर 2023 एससी 3245) में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का हवाला देते हुए, हाईकोर्ट ने बच्चे की समझने और सवालों के सच्चाई से जवाब देने की क्षमता के बारे में न्यायाधीश की संतुष्टि को दर्ज करने की आवश्यकता को रेखांकित किया।
3. चिकित्सा साक्ष्य में कमियाँ:
पीड़िता की चिकित्सा जांच में निर्णायक निष्कर्ष नहीं थे। चिकित्सा अधिकारी की गवाही ने हाइमनल टूटना या बाहरी जननांग चोटों जैसे प्रमुख पहलुओं को स्पष्ट नहीं किया, जिससे बच्चे के आरोपों की पुष्टि के बारे में संदेह पैदा हुआ।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
हाईकोर्ट ने कहा, “धारा 4(2) के तहत किसी विशिष्ट आरोप के अभाव के कारण, अपीलकर्ता को धारा 4(2) के तहत अनिवार्य न्यूनतम 20 वर्ष की सजा नहीं दी जा सकती थी। यह एक गंभीर प्रक्रियात्मक चूक है, जो अभियुक्त के विरुद्ध पूर्वाग्रह के समान है।”
इसके अलावा, न्यायालय ने प्रक्रियात्मक कठोरता के पालन के माध्यम से पीड़ितों और अभियुक्तों दोनों के अधिकारों की रक्षा करने की आवश्यकता पर बल दिया, विशेष रूप से गंभीर दंड वाले मामलों में।
निर्णय और रिमांड
न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय और सजा को अलग रखा और मामले को आरोप तय करने के चरण से पुनः सुनवाई के लिए वापस भेज दिया। इसने ट्रायल कोर्ट को बाल गवाह की क्षमता और चिकित्सा साक्ष्य के उचित मूल्यांकन सहित सभी प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का अनुपालन सुनिश्चित करने का निर्देश दिया।
अपीलकर्ता का प्रतिनिधित्व श्रीमती एमिली एल. छांगटे, एमिकस क्यूरी और श्री सी. तलंथियांघलीमा, कानूनी सहायता वकील ने किया। प्रतिवादी का प्रतिनिधित्व अतिरिक्त लोक अभियोजक सुश्री वन्नेइहिसियामी ने किया।