पत्नी द्वारा आपसी सहमति से तलाक की सहमति वापस लेना क्रूरता के मामले रद्द करने का आधार नहीं: बॉम्बे हाई कोर्ट

बॉम्बे हाई कोर्ट ने फैसला सुनाया कि पत्नी द्वारा आपसी सहमति से तलाक की सहमति वापस लेना कानून की प्रक्रिया के दुरुपयोग के रूप में नहीं देखा जा सकता और यह आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने का आधार नहीं हो सकता। अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि हिंदू विवाह अधिनियम (HMA) के तहत किसी भी पक्ष को अंतिम तलाक डिक्री से पहले किसी भी चरण में अपने फैसले पर पुनर्विचार करने का अधिकार है।

यह फैसला जस्टिस ए. एस. गडकरी और जस्टिस डॉ. नीला गोकले की पीठ ने पेटिशनर बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य (क्रिमिनल रिट पेटिशन नंबर 2638/2022) में सुनाया।

मामले की पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता ने अपनी पत्नी द्वारा लगाए गए आपराधिक आरोपों को रद्द करने की मांग की थी, जिनमें भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498-ए (क्रूरता) और 406 (आपराधिक विश्वासघात) के तहत दहेज उत्पीड़न और मानसिक प्रताड़ना के आरोप शामिल थे। यह आरोप उनके 2015 में शुरू हुए विवादित वैवाहिक संबंधों के कारण लगाए गए थे।

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2022 में, दोनों पक्षों ने HMA की धारा 13बी(1) के तहत आपसी सहमति से तलाक की प्रक्रिया शुरू की। उन्होंने एक समझौता पत्र पर हस्ताक्षर किए, जिसमें पत्नी को संपत्ति और मौद्रिक भुगतान सौंपने की शर्त शामिल थी। हालांकि, दूसरे चरण की प्रक्रिया (धारा 13बी(2)) शुरू होने से पहले पत्नी ने सहमति वापस ले ली और दावा किया कि पति ने समझौते की शर्तों का पालन नहीं किया और दबाव डाला।

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याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि पत्नी की सहमति वापस लेना समझौते का उल्लंघन है और इसे दिल्ली हाई कोर्ट ने पहले अवमानना माना था। उन्होंने यह भी दावा किया कि आपराधिक कार्यवाही प्रतिशोधात्मक हैं और कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग हैं।

मुख्य कानूनी प्रश्न

  1. आपसी तलाक में सहमति वापस लेना: क्या आपसी सहमति से तलाक की प्रक्रिया में एक पक्ष का सहमति वापस लेना कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग माना जा सकता है?
  2. समझौता उल्लंघन का प्रभाव: क्या समझौते की शर्तों का पालन न करना संबंधित आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने का आधार हो सकता है?
  3. आरोपों की वैधता: क्या क्रूरता और उत्पीड़न के आरोप समझौते के आधार पर रद्द किए जा सकते हैं?
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अदालत की टिप्पणियां

अदालत ने HMA की धारा 13बी(2) के तहत किसी भी पक्ष को अंतिम डिक्री से पहले सहमति वापस लेने के अधिकार को पुनः पुष्टि की। सुप्रीम कोर्ट के सुरेशता देवी बनाम ओमप्रकाश (1991) मामले का हवाला देते हुए अदालत ने स्पष्ट किया कि आपसी सहमति पूरी प्रक्रिया के दौरान बनी रहनी चाहिए। अदालत ने कहा:
“धारा 13बी(2) के तहत कूलिंग-ऑफ अवधि यह सुनिश्चित करने के लिए है कि पक्ष अपने निर्णय पर पुनर्विचार कर सकें। सहमति वापस लेना एक वैधानिक अधिकार है, न कि प्रक्रिया का दुरुपयोग।”

इसके अलावा, अदालत ने पाया कि समझौता पत्र की शर्तों का पालन दोनों पक्षों पर निर्भर था। चूंकि याचिकाकर्ता ने संपत्ति और भुगतान का निपटारा नहीं किया, पत्नी का तलाक की प्रक्रिया को आगे न बढ़ाना उचित था।

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फैसला

अदालत ने याचिकाकर्ता की याचिका खारिज करते हुए निर्णय दिया:

  1. पत्नी द्वारा सहमति वापस लेना HMA के तहत उनके अधिकार में है और इसे प्रक्रिया का दुरुपयोग नहीं माना जा सकता।
  2. आपराधिक कार्यवाही में क्रूरता और उत्पीड़न के आरोपों की जांच ट्रायल के दौरान होनी चाहिए और इन्हें पहले से रद्द नहीं किया जा सकता।
  3. निचली अदालत में चल रही कार्यवाही पर लगाया गया अंतरिम स्थगन हटाया गया और याचिका खारिज कर दी गई।

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