सर्वोच्च न्यायालय ने मध्यस्थता याचिका संख्या 31/2023 में एक ऐतिहासिक निर्णय में मध्यस्थता समझौतों, क्षेत्राधिकारीय अधिकारों और क्यूरीयल कानून के अनुप्रयोग से जुड़े महत्वपूर्ण कानूनी प्रश्नों को स्पष्ट किया है। यह निर्णय भारतीय क्षेत्राधिकार के अंतर्गत अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता कार्यवाहियों की धारणा और नियमन पर प्रभाव डालने वाला है।
मुख्य न्यायाधीश डॉ. धनंजय वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने इस मामले की सुनवाई की। उत्तरदाता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री पी. चिदंबरम ने कुछ मध्यस्थता सिद्धांतों की स्वीकार्यता पर बहस की, जबकि अपीलकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री के.के. वेणुगोपाल ने उनका प्रतिनिधित्व किया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला एक अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता समझौते से उत्पन्न हुआ, जिसमें मध्यस्थता कार्यवाही के लिए एक स्थान और एक विशिष्ट कानूनी ढांचा निर्दिष्ट था। इस सेटअप ने यह जटिलता उत्पन्न की कि कौन से न्यायालय अधिकार क्षेत्र रखेंगे और मध्यस्थता की प्रक्रिया का संचालन कौन सा कानून करेगा, साथ ही यह भी कि निर्णय की लागू क्षमता और इसकी वैधता पर कौन सा कानून लागू होगा।
प्रमुख कानूनी मुद्दे:
1. क्यूरीयल कानून बनाम मध्यस्थता समझौते को नियंत्रित करने वाला कानून:
अदालत ने उस प्रक्रिया संबंधी कानून (क्यूरीयल कानून) और मध्यस्थता समझौते को नियंत्रित करने वाले कानून के बीच अंतर को स्पष्ट किया। प्रश्न यह था कि क्या प्रक्रिया संबंधी कानून का अधिकार मध्यस्थता प्रक्रिया समाप्त होने के बाद भी रहेगा, और क्या यह कानून निर्णयों की लागू क्षमता को प्रभावित कर सकता है।
2. समवर्ती अधिकार क्षेत्र सिद्धांत:
समवर्ती अधिकार क्षेत्र सिद्धांत भारतीय न्यायालयों और विदेशी मध्यस्थता स्थान के न्यायालयों दोनों को अधिकार प्रदान करता है। हालांकि, इस निर्णय के तहत यह सिद्धांत स्पष्ट किया गया है कि मध्यस्थता के बाद अधिकार क्षेत्र किन मामलों तक सीमित रहेगा।
3. मध्यस्थता के “स्थान” बनाम “स्थानांतरण स्थल” के निहितार्थ:
एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा मध्यस्थता के “स्थान” और “स्थानांतरण स्थल” के बीच अंतर का था। स्थान निर्धारित करता है कि कौन सा प्रक्रिया संबंधी कानून लागू होगा, जबकि स्थानांतरण स्थल केवल सुनवाई के लिए एक भौतिक स्थान है। इस अंतर का विशेष महत्व उन न्यायालयों के लिए है जहाँ स्थान भारत के बाहर हो।
सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ और निर्णय
अदालत ने अपने निर्णय में कहा, “क्यूरीयल कानून मध्यस्थता की कार्यवाही के दौरान प्रक्रिया और संचालन को नियंत्रित करता है। क्यूरीयल कानून को लागू करने वाले न्यायालयों के पास मध्यस्थता के दौरान प्रक्रिया संबंधी मामलों के लिए आवेदन स्वीकार करने का अधिकार होता है, लेकिन यह अधिकार मध्यस्थता प्रक्रिया के समाप्त होने के साथ समाप्त हो जाता है।”
अदालत के प्रमुख निष्कर्ष:
1. कार्यवाही की समाप्ति के साथ अधिकार क्षेत्र का अंत: अदालत ने निर्णय दिया कि क्यूरीयल कानून का अधिकार क्षेत्र मध्यस्थता प्रक्रिया समाप्त होने पर समाप्त हो जाता है, जिससे भारतीय न्यायालयों के पास मध्यस्थता के बाद प्रक्रिया संबंधी अधिकार क्षेत्र का दावा करने का अधिकार नहीं रहता।
2. क्षेत्रीयता सिद्धांत का पालन:
BALCO सिद्धांत के अनुसार, अदालत ने दोहराया कि मध्यस्थता अधिनियम का भाग I केवल भारत में होने वाली मध्यस्थता पर लागू होता है, जबकि भाग II विदेशी स्थान वाली मध्यस्थता पर लागू होता है, जिससे भारतीय और विदेशी न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र और प्रक्रिया संबंधी कानूनों के बीच किसी भी ओवरलैप को रोका जा सके।
3. निर्णयों के क्रियान्वयन के लिए विशिष्ट अधिकार क्षेत्र:
अदालत ने स्पष्ट किया कि भारतीय न्यायालय विशेष परिस्थितियों में निर्णयों की लागू क्षमता में भूमिका निभा सकते हैं, लेकिन उनका प्रक्रिया संबंधी अधिकार क्षेत्र निर्णय जारी होने के साथ समाप्त हो जाता है, जिससे समवर्ती अधिकार क्षेत्र के लिए एक स्पष्ट सीमा स्थापित होती है।