सिर्फ ननद से झगड़ा करना क्रूरता नहीं: राजस्थान हाईकोर्ट

राजस्थान हाईकोर्ट ने अमीना की उस आरोप से मुक्ति को बरकरार रखा है जिसमें उन पर अपनी ननद, बिलकिश बानो, को जहर देने और दहेज संबंधी क्रूरता का आरोप था। कोर्ट ने फैसला सुनाया कि केवल ननद से झगड़ा करना भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498-ए के तहत क्रूरता के अंतर्गत नहीं आता, यह कहते हुए कि दहेज उत्पीड़न के आरोपों को साबित करने के लिए कोई ठोस सबूत प्रस्तुत नहीं किया गया।

मामले की पृष्ठभूमि:

यह मामला बिलकिश बानो की मौत के इर्द-गिर्द था, जिनका 15 अगस्त, 1998 को पेट में गंभीर दर्द के बाद निधन हो गया। वह तारानगर के वहीद हुसैन से विवाहित थीं और उनकी हालत बिगड़ने पर उन्हें चूरू के एक अस्पताल में ले जाया गया, जहां इलाज के दौरान उनकी मृत्यु हो गई। प्रारंभिक जाँच चूरू के उप-मंडल मजिस्ट्रेट (एसडीएम) द्वारा धारा 174 सीआरपीसी के तहत की गई, जिसके बाद आईपीसी की धारा 498-ए और 302 के तहत मामला दर्ज किया गया।

इस मामले में याचिकाकर्ता गुलाम हुसैन, जो मृतक के पिता हैं, ने आरोप लगाया कि उनकी बेटी को उसकी ननद अमीना द्वारा जहर दिया गया था। आरोपों के आधार पर अमीना के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज किया गया। शिकायतकर्ता का कहना था कि बिलकिश को अमीना द्वारा दहेज मांगों से संबंधित उत्पीड़न और क्रूरता का सामना करना पड़ा था।

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हालांकि, 19 अगस्त, 2002 के अपने आदेश में चूरू के राजगढ़ स्थित सत्र न्यायालय ने अमीना को इस आधार पर आरोपों से मुक्त कर दिया कि उनके खिलाफ कथित अपराधों से जुड़े पर्याप्त सबूत नहीं थे। इस फैसले को याचिकाकर्ता ने राजस्थान हाईकोर्ट में चुनौती दी।

कानूनी मुद्दे:

हाईकोर्ट के समक्ष प्रस्तुत मुख्य कानूनी मुद्दे थे कि क्या अमीना का आचरण आईपीसी की धारा 498-ए के तहत क्रूरता के अंतर्गत आता है, और क्या हत्या (धारा 302 आईपीसी) या आत्महत्या के उकसावे (धारा 306 आईपीसी) के आरोपों का समर्थन करने के लिए कोई सबूत था।

याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि निचली अदालत ने अमीना को आरोपों से मुक्त करने में गलती की और मामले को फिर से परीक्षण के लिए खोला जाना चाहिए। याचिकाकर्ता के वकील, श्री मनवेंद्र सिंह, ने तर्क दिया कि एसडीएम द्वारा की गई जांच और प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) के आधार पर अमीना के खिलाफ आरोप तय करने के लिए पर्याप्त आधार था।

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कोर्ट की टिप्पणियाँ:

मामले की सुनवाई कर रहे न्यायमूर्ति अरुण मोंगा ने प्रस्तुत साक्ष्यों और निचली अदालत के तर्कों का बारीकी से विश्लेषण किया। कोर्ट ने पाया कि अभियोजन द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य अमीना के खिलाफ धारा 498-ए आईपीसी के तहत क्रूरता या बिलकिश बानो की मौत में उनकी कथित संलिप्तता के लिए किसी भी प्रारंभिक मामले को स्थापित करने के लिए पर्याप्त नहीं थे।

कोर्ट ने टिप्पणी की: “परिवार के सदस्यों के बीच, जिसमें ननद और मृतका के बीच झगड़े शामिल हैं, को धारा 498-ए के तहत क्रूरता के रूप में नहीं माना जा सकता जब तक कि ऐसे कार्यों को अवैध दहेज मांगों को पूरा करने के लिए उत्पीड़न के निरंतर पैटर्न के रूप में साबित नहीं किया जाता।”

कोर्ट ने आगे नोट किया कि अमीना द्वारा बिलकिश को जहर देने के आरोप घटना के लगभग दो साल बाद लगाए गए थे और उनमें कोई पुष्टिकरण नहीं था। जहर देने या आत्महत्या के उकसावे के आरोप में अमीना की संलिप्तता से जुड़े कोई प्रत्यक्ष या परिस्थितिजन्य साक्ष्य नहीं थे, जिसके आधार पर कोर्ट ने मामले को फिर से खोलने की याचिका खारिज कर दी।

कोर्ट का फैसला:

हाईकोर्ट ने सत्र न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा, जिसमें अमीना को सभी आरोपों से मुक्त किया गया था। न्यायमूर्ति अरुण मोंगा ने जोर देकर कहा कि अभियोजन पक्ष के साक्ष्यों में दहेज मांगों या अमीना द्वारा की गई क्रूरता का कोई संकेत नहीं था। केवल इस तथ्य से कि बिलकिश अमीना के घर गईं और कभी-कभी झगड़े हुए, धारा 498-ए के तहत आरोप तय करने के लिए पर्याप्त नहीं था।

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कोर्ट ने निष्कर्ष में कहा, “दहेज उत्पीड़न या जहर देने का कोई प्रारंभिक सबूत नहीं है। याचिकाकर्ता का मामला संदेह पर आधारित है, न कि ठोस प्रमाण पर, और पुष्टिकरण साक्ष्य के अभाव में आरोपी पर कोई आपराधिक दायित्व नहीं लगाया जा सकता।”

याचिका खारिज कर दी गई, और कोर्ट ने कहा कि निचली अदालत के फैसले में कोई प्रक्रियात्मक अनियमितता या कानूनी त्रुटि नहीं थी।

मामले का विवरण:

– मामला शीर्षक: गुलाम हुसैन बनाम राजस्थान राज्य और अन्य।

– मामला संख्या: एस.बी. क्रिमिनल रिवीजन पेटिशन नंबर 1130/2002

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