गुजरात हाईकोर्ट ने 15 साल पुराने मामले में पति को बरी करने के फैसले को पलटा, पत्नी के मृत्यु पूर्व बयान को वैध माना

एक महत्वपूर्ण फैसले में, गुजरात हाई कोर्ट ने छगनभाई कलियानभाई भाभोर की बरी होने के फैसले को पलटते हुए, उनकी पत्नी सुमित्राबेन की आत्महत्या के मामले में उन्हें दोषी करार दिया है। यह फैसला सुमित्राबेन के मरने से पहले दिए गए बयान के आधार पर दिया गया, जिससे यह सिद्ध हुआ कि उनके पति ने उन्हें आत्महत्या के लिए उकसाया था। यह फैसला 2009 में दिए गए बरी आदेश के 15 साल बाद आया है और मरने से पहले के बयानों की स्वीकार्यता और वैधता को लेकर एक महत्वपूर्ण कानूनी मिसाल कायम करता है। न्यायमूर्ति निशा एम. ठाकोर ने 27 सितंबर, 2024 को क्रिमिनल अपील नंबर 168 ऑफ 2010 पर अपना फैसला सुनाया, जिसमें भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 498(A) (क्रूरता) और 306 (आत्महत्या के लिए उकसाना) के तहत आरोपों को फिर से लागू किया गया।

मामले की पृष्ठभूमि:

यह मामला 30 जून, 1992 का है जब सुमित्राबेन ने घरेलू विवाद के बाद कथित रूप से खुद को आग लगाकर अपनी जान ले ली थी। पति-पत्नी खेत में काम करके लौटे थे, जब सुमित्राबेन ने अपने पति छगनभाई से उनके भाई के खेत के काम को प्राथमिकता देने की बात पर नाराजगी जाहिर की। इस आलोचना से नाराज होकर छगनभाई ने उन्हें गालियां दीं और हिंसा की धमकी दी। उसी शाम, जब छगनभाई बाहर बैठे थे, तब सुमित्राबेन ने खुद पर मिट्टी का तेल डालकर आग लगा ली।

हालांकि उन्हें दाहोद के सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया गया था, लेकिन 22 दिनों के बाद सुमित्राबेन की जलने से हुई चोटों के कारण मृत्यु हो गई। उपचार के दौरान उन्होंने अपने पति पर प्रताड़ना और हिंसा के आरोप लगाते हुए मरने से पहले बयान दिया था। हालांकि, 2009 में दाहोद के फास्ट ट्रैक कोर्ट ने छगनभाई को मरने से पहले के बयान में प्रक्रियात्मक खामियों और गवाहों की गवाही में असंगतियों के कारण बरी कर दिया था।

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मुख्य कानूनी मुद्दे:

1. मरने से पहले के बयान की वैधता:

   हाई कोर्ट के समक्ष मुख्य सवाल यह था कि क्या सुमित्राबेन का मरने से पहले का बयान वैध सबूत के रूप में स्वीकार्य हो सकता है, खासकर जब बयान के समय उनकी मानसिक स्थिति के बारे में चिकित्सा प्रमाणन की कमी थी।

2. क्रूरता और आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप की पुष्टि:

   अभियोजन पक्ष को यह साबित करना था कि पति के कृत्य धारा 498(A) के तहत क्रूरता के दायरे में आते हैं और उन्होंने धारा 306 के तहत सुमित्राबेन को आत्महत्या के लिए उकसाया।

3. शत्रुतापूर्ण गवाह और असंगत गवाही:

   मामले को और जटिल बना दिया जब सुमित्राबेन के रिश्तेदारों सहित मुख्य गवाह शत्रुतापूर्ण हो गए और उन्होंने अभियोजन पक्ष के दावों का समर्थन नहीं किया।

कोर्ट की टिप्पणियां और निर्णय:

न्यायमूर्ति निशा एम. ठाकोर ने बरी आदेश को पलटते हुए कहा कि सुमित्राबेन का मरने से पहले का बयान प्रक्रियात्मक चिंताओं के बावजूद विश्वसनीय और सुसंगत था। कोर्ट ने बचाव पक्ष के इस तर्क को खारिज कर दिया कि बयान के समय उनकी मानसिक स्थिति के चिकित्सा प्रमाणन की कमी इसे अविश्वसनीय बनाती है। इसके बजाय, कोर्ट ने महत्वपूर्ण कानूनी मिसालों का हवाला देते हुए कहा कि चिकित्सा प्रमाणन आदर्श है, लेकिन उसकी अनुपस्थिति में भी यदि बयान विश्वसनीय लगता है, तो उसे खारिज नहीं किया जा सकता।

कोर्ट ने कहा:

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“मरने से पहले दिए गए बयान की गंभीरता को सिर्फ इसलिए कम नहीं किया जा सकता क्योंकि उसके साथ चिकित्सा प्रमाणन नहीं है, बशर्ते कि आस-पास की परिस्थितियाँ यह संकेत दें कि पीड़िता बयान देने की स्थिति में थी। सुमित्राबेन का बयान, जो लगातार एक ही कहानी कहता है, उनके पति की क्रूरता और उनकी आत्महत्या के बीच एक स्पष्ट संबंध को दर्शाता है।”

इस फैसले में यह भी कहा गया कि सुमित्राबेन ने अपनी शादी के दौरान मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न के बारे में लगातार बयान दिए थे। भले ही उनके रिश्तेदार, जैसे उनकी माँ और भाई, शत्रुतापूर्ण हो गए थे, लेकिन कोर्ट ने पीड़िता के मरने से पहले के बयान को महत्वपूर्ण माना।

साक्ष्यों की पुनः समीक्षा:

हाई कोर्ट ने साक्ष्यों की सावधानीपूर्वक पुनः समीक्षा की, खासकर सुमित्राबेन के बयानों की सुसंगतता पर ध्यान केंद्रित किया। जहां निचली अदालत ने मरने से पहले के बयान को डॉक्टर के प्रमाणन की कमी के कारण खारिज कर दिया था, वहीं हाई कोर्ट ने कहा कि इसे सिर्फ इस कारण से खारिज नहीं किया जा सकता। न्यायमूर्ति ठाकोर ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों लक्ष्मण बनाम महाराष्ट्र राज्य और अतबीर बनाम दिल्ली सरकार का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि जब तक बयान सत्य और स्वैच्छिक प्रतीत होता है, उसे एकमात्र आधार पर दोषसिद्धि के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।

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कोर्ट ने पाया कि पीड़िता के लगातार बयान, जिसमें उन्होंने अपने पति द्वारा किए गए शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न के बारे में कहा था, धारा 498(A) के तहत क्रूरता के तत्वों को स्पष्ट रूप से स्थापित करते हैं। कोर्ट ने यह भी नोट किया कि छगनभाई का घटना के दिन का व्यवहार — हिंसा की धमकी देना और गालियां देना — धारा 306 के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने का संकेत देता है।

मरने से पहले के बयान का महत्व:

इस महत्वपूर्ण फैसले में, कोर्ट ने घरेलू हिंसा और आत्महत्या के मामलों में मरने से पहले के बयान के महत्व पर जोर दिया। उसने कहा कि:

“स्वैच्छिक और बिना किसी दबाव के दिया गया मरने से पहले का बयान अत्यधिक साक्ष्य मूल्य रखता है, खासकर जब पीड़िता खुद गवाही देने के लिए जीवित नहीं रहती। इस मामले में, आरोपी के व्यवहार और धमकियों के बारे में पीड़िता के लगातार बयानों ने दोषसिद्धि का मजबूत आधार प्रदान किया।”

कोर्ट ने यह भी बताया कि बचाव पक्ष ने मरने से पहले के बयान की प्रामाणिकता को चुनौती देने के लिए कोई विश्वसनीय सबूत पेश नहीं किया। कोर्ट ने कहा कि निचली अदालत ने मामूली प्रक्रियात्मक खामियों को अधिक महत्व दिया और पीड़िता के बयान के मूल तत्वों की अनदेखी की।

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