इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में उन मामलों में आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के सिद्धांत निर्धारित किए हैं, जहां पक्षकारों के बीच सौहार्दपूर्ण समझौता हो गया है। यह निर्णय 2011 में हुई घटनाओं के संबंध में दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 482 के तहत दायर दो क्रॉस आवेदनों पर दिया गया। मामले की अध्यक्षता कर रहे न्यायमूर्ति राजीव मिश्रा ने चल रहे मुकदमों को रद्द करते हुए इस बात पर जोर दिया कि पक्षों के बीच हुए समझौते के कारण अभियोजन को जारी रखना अनावश्यक हो गया है।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला 4 दिसंबर, 2011 को वाराणसी के बड़ागांव में हुए विवाद से शुरू हुआ, जिसके कारण दो क्रॉस एफआईआर दर्ज की गईं। पहली एफआईआर (मामला अपराध संख्या 263/2011) शिव कुमार द्वारा दर्ज की गई थी, जिसमें वीरेंद्र कुमार सिंह और अन्य पर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 307 के तहत हत्या के प्रयास के साथ-साथ धारा 504 और 506 आईपीसी के तहत आरोप लगाए गए थे। इस घटना में दो व्यक्ति, राम कुमार और वीरेंद्र कुमार सिंह घायल हो गए।
वीरेंद्र कुमार सिंह द्वारा शिव कुमार और अन्य के खिलाफ एक क्रॉस एफआईआर (केस क्राइम नंबर 263ए ऑफ 2011) दर्ज की गई थी, जिसमें धारा 147, 452, 336, 323, 504 और 506 आईपीसी के तहत अपराध का आरोप लगाया गया था।
दोनों मामलों में सत्र परीक्षण शुरू किए गए – वीरेंद्र कुमार सिंह के खिलाफ 2012 की संख्या 255 और शिव कुमार के खिलाफ 2013 की संख्या 510। इन मुकदमों के लंबित रहने के दौरान, दोनों पक्षों ने 18 मई, 2024 को समझौता किया, जिसके बाद आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के लिए धारा 482 सीआरपीसी के तहत आवेदन किया गया।
कानूनी मुद्दे
प्राथमिक कानूनी सवाल यह था कि क्या हाईकोर्ट पक्षों के बीच समझौते के आधार पर आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर सकता है, खासकर जब धारा 307 आईपीसी के तहत हत्या के प्रयास जैसे गंभीर आरोप शामिल हों। न्यायालय को यह भी विचार करना था कि क्या अपराध की प्रकृति को निरस्त करने की अनुमति है, यह देखते हुए कि कुछ गंभीर अपराध भारतीय कानून के तहत गैर-शमनीय हैं।
न्यायालय का निर्णय और स्थापित सिद्धांत
न्यायमूर्ति राजीव मिश्रा ने एक विस्तृत निर्णय में उन मामलों में आपराधिक कार्यवाही को निरस्त करने के सिद्धांतों को रेखांकित किया, जहां पक्षों ने अपने विवाद को सुलझा लिया है। न्यायालय ने माना कि गैर-शमनीय मामलों में भी, कार्यवाही को निरस्त किया जा सकता है यदि अपराध मुख्य रूप से निजी प्रकृति का था, और मुकदमे को जारी रखने से न्याय के उद्देश्य पूरे नहीं होंगे।
न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के कई ऐतिहासिक निर्णयों का हवाला दिया, जिनमें मध्य प्रदेश राज्य बनाम लक्ष्मी नारायण (2019), रामगोपाल बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2021), और बी.एस. जोशी बनाम हरियाणा राज्य (2003) शामिल हैं, जो समझौते के आलोक में आपराधिक कार्यवाही को निरस्त करने से संबंधित थे। इसने निम्नलिखित प्रमुख सिद्धांतों का सारांश दिया:
1. अपराध की प्रकृति: न्यायालय को यह मूल्यांकन करना चाहिए कि अपराध निजी प्रकृति का है या समाज पर इसका गंभीर प्रभाव है। हत्या, बलात्कार और डकैती जैसे जघन्य अपराध, जो सार्वजनिक हित को प्रभावित करते हैं, उन्हें तब भी रद्द नहीं किया जा सकता, जब पीड़ित ने मामले को सुलझा लिया हो। इसके विपरीत, व्यक्तिगत विवादों से उत्पन्न होने वाले मामले, जैसे कि वित्तीय या नागरिक मामले, को रद्द किया जा सकता है।
2. सार्वजनिक हित पर प्रभाव: न्यायालय को समझौता करने की अनुमति देने के सामाजिक प्रभाव पर विचार करना चाहिए। ऐसे मामलों में जहां अपराध राज्य या सार्वजनिक हित के विरुद्ध नहीं है, और दोषसिद्धि की संभावना बहुत कम है, कार्यवाही को रद्द करना उचित हो सकता है।
3. समझौते की स्वैच्छिक प्रकृति: न्यायालय ने जोर देकर कहा कि कोई भी समझौता बिना किसी दबाव या जबरदस्ती के स्वैच्छिक होना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि इस मामले में दोनों पक्षों ने स्वेच्छा से अपने मतभेदों को सुलझा लिया था।
4. न्यायिक अर्थव्यवस्था: ऐसे मामलों में जहां समझौता दोषसिद्धि की किसी भी वास्तविक संभावना को समाप्त कर देता है, कार्यवाही को जारी रखना केवल न्यायिक संसाधनों को बर्बाद करना होगा। न्यायमूर्ति मिश्रा ने कहा कि न्यायालय को ऐसे मुकदमों को लम्बा नहीं खींचना चाहिए जो किसी उपयोगी उद्देश्य की पूर्ति नहीं करते, खास तौर पर ऐसे न्यायिक तंत्र में जो पहले से ही अत्यधिक मुकदमेबाजी के बोझ से दबा हुआ है।
5. कोई गंभीर चोट नहीं: इस विशेष मामले में, न्यायालय ने इस तथ्य पर विचार किया कि पीड़ितों को कोई गंभीर या घातक चोट नहीं लगी थी, तथा विवाद मुख्य रूप से व्यक्तिगत प्रकृति का था। इसलिए, अभियोजन जारी रखने में जनहित न्यूनतम था।
6. क्रॉस एफआईआर: क्रॉस एफआईआर का अस्तित्व एक अन्य प्रासंगिक कारक था। न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि चूंकि दोनों पक्षों ने एक ही घटना के लिए एक-दूसरे के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई थी, तथा दोनों ने समझौता करने पर सहमति व्यक्त की थी, इसलिए मामले को मामलों को रद्द करके सुलझाया जा सकता है।
न्यायालय द्वारा महत्वपूर्ण टिप्पणियां
न्यायमूर्ति मिश्रा ने ऐसे मामलों में न्यायिक दृष्टिकोण के बारे में महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं। उन्होंने कहा:
– “पक्षों के बीच विवाद पूरी तरह से निजी विवाद है, न कि राज्य के खिलाफ।”
– “कार्यवाही जारी रखने से पक्षों के साथ अन्याय होगा तथा निरर्थक प्रयास में न्यायिक समय की हानि होगी।”
वकील और पक्ष का विवरण
इस मामले में दो अलग-अलग आवेदन शामिल थे:
– आवेदन धारा 482 संख्या – 19240/2024 (वीरेंद्र कुमार सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य) में आवेदक के वकील श्री ऋषभ नारायण सिंह थे, जबकि श्री दुर्गेश कुमार सिंह और श्री अनिल कुमार वर्मा विपरीत पक्षों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे।
– आवेदन धारा 482 संख्या – 18772/2024 (शिव कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य) में संबंधित पक्षों के लिए एक ही वकील पेश हुए, दोनों पक्षों ने समझौते के आधार पर कार्यवाही को रद्द करने का समर्थन किया।