हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने धारा 482 सीआरपीसी के तहत एफआईआर को रद्द करने से इनकार किया, धारा 320(1) सीआरपीसी के तहत वैकल्पिक उपाय पर प्रकाश डाला

मोहन सिंह एवं अन्य बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य शीर्षक वाले इस मामले में याचिकाकर्ताओं ने 17 अक्टूबर, 2023 को पुलिस स्टेशन शिलाई, जिला सिरमौर में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 323, 504, 506 के साथ धारा 34 के तहत दर्ज एफआईआर (संख्या 0070/2023) को रद्द करने की मांग की थी। एफआईआर एक विवाद से उपजी थी जिसे बाद में स्थानीय हस्तक्षेप के माध्यम से सुलझा लिया गया था। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि कार्यवाही जारी रखना निरर्थक होगा और यह न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा। उन्होंने दावा किया कि दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 482 के तहत हाईकोर्ट की अंतर्निहित शक्तियों को लागू करने के अलावा कोई अन्य उपाय उपलब्ध नहीं था।

महत्वपूर्ण कानूनी मुद्दे:

1. धारा 320(1) सीआरपीसी के तहत अपराधों की समझौता योग्यता: याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि एफआईआर में उल्लिखित सभी अपराध धारा 320(1) सीआरपीसी के तहत समझौता योग्य हैं, जिसके लिए अदालत के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने अपने इस रुख का समर्थन करने के लिए ज्ञान सिंह बनाम पंजाब राज्य (2012) सहित पिछले निर्णयों का हवाला दिया कि एफआईआर को रद्द किया जा सकता है, भले ही अपराध समझौता योग्य हों।

2. धारा 482 सीआरपीसी के तहत निहित शक्तियों का प्रयोग: मुख्य कानूनी मुद्दा यह था कि क्या हाईकोर्ट को धारा 482 सीआरपीसी के तहत अपनी निहित शक्तियों का उपयोग एफआईआर को रद्द करने के लिए करना चाहिए, जब ट्रायल कोर्ट में अपराधों को समझौता करने जैसा वैकल्पिक उपाय उपलब्ध था।

अदालत का निर्णय:

न्यायमूर्ति राकेश कैंथला की अध्यक्षता में हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने याचिका खारिज कर दी। न्यायालय ने कहा कि धारा 482 सीआरपीसी के तहत निहित शक्तियों का प्रयोग संयम से किया जाना चाहिए और केवल तभी किया जाना चाहिए जब कोई वैकल्पिक उपाय उपलब्ध न हो। न्यायमूर्ति कैंथला ने इस बात पर जोर दिया कि चूंकि एफआईआर में सूचीबद्ध अपराध सीआरपीसी की धारा 320(1) के तहत समझौता योग्य थे, इसलिए याचिकाकर्ताओं को अपराधों के समझौता के लिए ट्रायल कोर्ट का दरवाजा खटखटाकर निवारण की मांग करनी चाहिए।

न्यायालय ने मधु लिमये बनाम महाराष्ट्र राज्य (1977) और अरुण शंकर शुक्ला बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1999) जैसे कई ऐतिहासिक निर्णयों का हवाला दिया, ताकि इस सिद्धांत को मजबूत किया जा सके कि जब सीआरपीसी के तहत कोई विशिष्ट उपाय उपलब्ध हो तो हाईकोर्ट की अंतर्निहित शक्तियों का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए।

न्यायालय की टिप्पणियां:

न्यायमूर्ति कैंथला ने मधु लिमये मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का हवाला देते हुए कहा, “यदि संहिता में पीड़ित पक्ष की शिकायत के निवारण के लिए कोई विशिष्ट प्रावधान है, तो इस शक्ति का सहारा नहीं लिया जाना चाहिए; किसी भी न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने या अन्यथा न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिए इसका बहुत संयम से प्रयोग किया जाना चाहिए।” न्यायालय ने यह भी बताया कि याचिकाकर्ताओं का यह दावा गलत है कि कोई अन्य उपाय उपलब्ध नहीं था, क्योंकि सीआरपीसी की धारा 320(1) न्यायालय की अनुमति के बिना एफआईआर में उल्लिखित अपराधों को संयोजित करने की अनुमति देती है।

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मामले का विवरण:

– केस का शीर्षक: मोहन सिंह एवं अन्य बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य एवं अन्य

– केस संख्या: सीआरपीसी एमएमओ संख्या 585/2024

– पीठ: न्यायमूर्ति राकेश कैंथला

– याचिकाकर्ताओं की ओर से: श्री गणेश बारोवालिया, अधिवक्ता

– प्रतिवादियों की ओर से:

– राज्य: श्री लोकेंद्र कुटलेहरिया, अतिरिक्त महाधिवक्ता

– प्रतिवादी संख्या 2: श्री गंभीर सिंह चौहान, अधिवक्ता

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